Wednesday, 13 April 2016

यदुवंशियों का पौराणिक इतिहास ("अदिनारायण से श्री कृष्ण जी तक")

ऐसे  तो  ईश्वर  की  स्रष्टि  अनन्त और  इसमें  अनन्त  राजा हो  गए  है ।   परन्तु  यहाँ  एक ऐसे  पुरातन राजवंश  का  वर्णन  किया  जा  रहा  है।   जिसके  परंपरागत वंशज  आज  तक  इस  भारत  भूमी पर कही  ना कही  राजधानिया  समयानुसार  स्थापित  करते  हुए  बराबर  राज्य  करते  चले  आ  रहे है ।  यह  पुरातन राजवंश  चन्द्रवंश  (यदुवंश ) के  नाम  से  प्रख्यात  है। 

१.आदिनारायण :-  जो अनादी स्वरूप माने जाते है

 देवमाता अदिति :-
अदिति संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ '' असीम '' है | दक्षप्रजापति की पुत्री थी | और कश्यप ऋषि को ब्याही थी | अदिति को देवमाता कहा गया है | मित्र -वरुण,आदित्य ,रूद्र ,इंद्र आदी इन्ही की संताने बताये गए है | आधुनिक द्रष्टि से देखे तो अन्तरिक्ष से इनका बोध होता है जिसमे सभी आदित्य भ्रमण किया करते है |

पोराणिक कथाओं में देवमाता अदिति
पोराणिक कथाओं के वैदिक युग में असीम या अनन्त का मानवीकता रूप और अदीत्य नामक स्वर्ण के देवताओं के समूह की माता आदिम देवी के रूप में इन्हें विष्णु सहित कई देवताओं की जननी माना गया है | अदिति आकाश को अवलंब प्रदान करती है | सभी जीवों का पालन और प्रथ्वी का पोषण करती है | इस रूप में इन्हें कभी -कभी गाय के रूप में भी दर्शाया जाता है |

देवमाता अदिति के पुत्र
आमतोर पर उनके पुत्र आदित्यों की संख्या १२ बताई जाती है | वरुण इनके प्रमुख है | और नकी हि तरह उन्हें ऋतू (देवी श्रेणी ) का रक्षक माना जाता है | ऐक श्लोक में उनके नाम वरुण ,मित्र आर्यमन ,दक्ष ,भग और अंश बताये गए है | इनमे से कई बार दक्ष को हटाकर इंद्र ,सवित्र (सूर्य ) और धातु को शामिल कर ,लिया जाता है | कभी -कभी इस शब्द के व्यापक अर्थ में सभी देवताओं को शामिल कर लिया जाता है | जहाँ आदित्यों की संख्या १२ मानी गयी है | वहां उन्हें वर्ष के १२ सोर महीनो से जोड़ा जाता है | एकवचन के रूप में आदित्य ,सूर्य का ऐक नाम है |
वेदों में देवमाता अदिति
वेड में अदिति को सीमाहीन बताया गया है | पुराण तो आकाश ,वायु ,माता ,पिता ,सर्व देवता ,सर्व मानव ,भूत ,वर्तमान ,भविष्य सब कुछ अदिति को हि बताते है | कश्यप ऋषि की दो पत्निया थी - अदिति और दिति | अदिति के गर्भ से देवता और दिति के गर्भ से देत्या उत्पन्न हुए |
श्री कृष्णा की माता देवकी को '' अदिति का अवतार '' बताया जाता है
२. ब्रह्मा जी :- इनकी उत्पति नारायण के नाभिसरोवर के कमल से हुयी | श्रष्टि रचयिता यही है |
३.अत्री :- ब्रहमाजी के पुत्र अत्री ऋषि हुए जो गुणों के कारन अपने पिता ब्रहमाजी के समान थे | अत्री सम्पूर्ण ऋग्वेद के दस मंडलों में प्रविभक्त है | प्रत्येक मंडल के मंत्रो के ऋषि अलग-अलग है | उनमे से ऋग्वेद के पंचम मंडल के द्रष्टा महर्षि अत्री है | इसलिए यह मंडल '' आत्रेय मंडल '' कहलाता है | इस मंडल में ८७ सूक्त है | जिनमे महर्षि अत्री द्वारा विशेष रूप से अग्नि ,इंद्र ,मरुत ,विश्वेदेत तथा सविता आदी देवों की महनीय स्तुतियाँ ग्रंथित है | इंद्रा तथा अग्नि देवता के महनीय कर्मों का वर्णन है | अत्री ब्रह्मा के पुत्र थे जो उनके नेत्रों से उत्पन्न हुए थे | ये सोम के पिता थे जो इनके नेत्रों से आविर्भूत हुए थे | इन्होने कर्दम की पुत्री अनुसूया से विवाह किया था | इन दोनों के पुत्र दतात्रेय थे | इन्होने अलर्क ,प्रह्लाद आदी को अन्वीक्ष्की की सिक्षा दी थी | पांडू पुत्र भीष्म जब शर-शैया पर पड़े थे उस समय ये उनसे मिलने गए थे | पांडूवंशी राजा परीक्षित जब प्रायोपवेश का अभ्यास कर रहे थे तो ये उन्हें देखने गए थे | पुत्रोत्प्ती के लिए इन्होने ऋक्ष परवत पर पत्नी के साथ तप किया था | इन्होने त्रिमुर्तियों की प्राथना की थी जिनसे त्रिवेदी के अंश रूप में दत (विष्णु ) दुर्वासा (शिव )और सोम (ब्रह्मा ) उत्पन्न हुए थे | इन्होने दो बार इक्ष्वाकुवंशी राजा प्रथू को घोड़े चुराकर भागते हुए इंद्र को दिखाया था तथा हत्या करने को कहा था | ये वेवस्वत युग के मुनि थे | मंत्राकर के रूप में इन्होने उतानपाद को अपने पुत्र के रूप में ग्रहण किया था | इनके ब्रह्मावादिनी नाम की कन्या थी \ परशुराम जब ध्यानवश्थित रूप में था उस समय ये उनके पास गए थे | इन्होने श्राध द्वारा पितरों की आराधना की थी और सोम की राजक्ष्मा रोग से मुक्त किया था | ब्रहमा के द्वारा स्रष्टि की रचना के लिए नियुक्त किये जाने पर इन्होने ''अनुपम ' तक किया था जब की शिव इनसे मिले थे | सोम के राजयूस यज्ञ में इन्होने होता का कार्य किया था | त्रिपुर के विनाश के लिए इन्होने शिव की आराधना की थी |
वैदिक मन्त्रद्रष्टा
महर्षि अत्रि वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं। पुराणों में इनके आविर्भाव का तथा उदात्त चरित्र का बड़ा ही सुन्दर वर्णन हुआ है। वहाँ के वर्णन के अनुसार महर्षि अत्रि ब्रह्माजी के मानस-पुत्र हैं और उनके चक्षु भाग से इनका प्रादुर्भाव हुआ। सप्तर्षियों में महर्षि अत्रि का परिगणन है। साथ ही इन्हें 'प्रजापति' भी कहा गया है। महर्षि अत्रि की पत्नी अनुसूया जी हैं जो कर्दम प्रजापति और देवहूति की पुत्री हैं। देवी अनुसूया पतिव्रताओं की आदर्शभूता और महान दिव्यतेज से सम्पन्न हैं। महर्षि अत्रि जहाँ ज्ञान, तपस्या, सदाचार, भक्ति एवं मन्त्रशक्ति के मूर्तिमान स्वरूप हैं वहीं देवी अनुसूया पतिव्रता धर्म एवं शील की मूर्तिमती विग्रह हैं। भगवान श्री राम अपने भक्त महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया की भक्ति को सफल करने स्वयं उनके आश्रम पर पधारे। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया। उन्होंने अपने पतिव्रत के बल पर शैव्या ब्राह्माणी के मृत पति को जीवित कराया तथा बाधित सूर्य को उदित कराकर संसार का कल्याण किया। देवी अनुसूया का नाम ही बड़े महत्त्व का है। अनुसूया नाम है परदोष-दर्शन का गुणों में भी दोष बुद्धि का और जो इन विकारों से रहित हो वही 'अनुसूया' है।इसी प्रकार महर्षि अत्रि भी 'अ त्रि' हैं अर्थात वे तीनों गुणों (सत्त्व, रजस, तमस)- से अतीत है गुणातीत हैं। इस प्रकार महर्षि अत्रि-दम्पति एवं विध अपने नामानुरूप जीवन यापन करते हुए सदाचार परायण हो चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। अत्रि पत्नी अनुसूया के तपोबल से ही भागीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में प्रविष्ट हुई और 'मंदाकिनी' नाम से प्रसिद्ध हुई।
  • सृष्टि के प्रारम्भ में जब इन दम्पति को ब्रह्मा जी ने सृष्टिवर्धन की आज्ञा दी तो इन्होंने उस ओर उन्मुख न हो तपस्या का ही आश्रय लिया। इनकी तपस्या से ब्रह्मा, विष्णु, महेश ने प्रसन्न होकर इन्हें दर्शन दिया और दम्पति की प्रार्थना पर इनका पुत्र बनना स्वीकार किया। अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय,ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में आविर्भूत हुए।
    वेदों में उपर्युक्त वृत्तान्त यथावत नहीं मिलता है कहीं-कहीं नामों में अन्तर भी है। ऋग्वेद में 'अत्रि:सांख्य:' कहा गया है। वेदों में यह स्पष्ट रूप से वर्णन है कि महर्षि अत्रि को अश्विनी कुमारों की कृपा प्राप्त थी। एक बार जब ये समाधिस्थ थे तब दैत्यों ने इन्हें उठाकर शतद्वार यन्त्र में डाल दिया और आग लगाकर इन्हें जलाने का प्रयत्न किया किंतु अत्रि को उसका कुछ भी ज्ञान नहीं था। उस समय अश्विनी कुमारों ने वहाँ पहुँचकर इन्हें बचाया। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 51वें तथा 112वें सूक्त में यह कथा आयी है। ऋग्वेद के दशम मण्डल में महर्षि अत्रि के दीर्घ तपस्या के अनुष्ठान का वर्णन आया है और बताया गया है कि यज्ञ तथा तप आदि करते-करते जब अत्रि वृद्ध हो गये तब अश्विनी कुमारों ने इन्हें नवयौवन प्रदान किया। ऋग्वेद के पंचम मण्डल में अत्रि के वसूयु, सप्तवध्रि नामक अनेक पुत्रों का वृत्तान्त आया है जो अनेक मन्त्रों के द्रष्टा ऋषि रहे हैं। इसी प्रकार अत्रि के गोत्रज आत्रेयगण ऋग्वेद के बहुत से मंत्रो के द्रष्टों है

    ऋग्वेद के पंचम 'आत्रेय मण्डल' का 'कल्याण सूक्त' ऋग्वेदीय 'स्वस्ति-सूक्त' है, वह महर्षि अत्रि की ऋतम्भरा प्रज्ञा से ही हमें प्राप्त हो सका है यह सूक्त 'कल्याण-सूक्त', 'मंगल-सूक्त' तथा 'श्रेय-सूक्त' भी कहलाता है। जो आज भी प्रत्येक मांगलिक कार्यों, शुभ संस्कारों तथा पूजा, अनुष्ठानों में स्वस्ति-प्राप्ति, कल्याण-प्राप्ति,अभ्युदय-प्राप्ति, भगवत्कृपा-प्राप्ति तथा अमंगल के विनाश के लिये सस्वर पठित होता है। इस मांगलिक सूक्त में अश्विनी, भग, अदिति, पूषा, द्यावा, पृथिवी, बृहस्पति, आदित्य, वैश्वानर, सविता तथा मित्रा वरुण और सूर्य- चंद्रमा आदि देवताओं से प्राणिमात्र के लिये स्वस्ति की प्रार्थना की गयी है। इससे महर्षि अत्रि के उदात्त-भाव तथा लोक-कल्याण की भावना का किंचित स्थापना होता है।इसी प्रकार महर्षि अत्रि ने मण्डल की पूर्णता में भी सविता देव से यही प्रार्थना की है कि 'हे सविता देव आप हमारे सम्पूर्ण दु:खों को-अनिष्टों को, शोक-कष्टों को दूर कर दें और हमारे लिये जो हितकर हो कल्याणकारी हो उसे उपलब्ध करायें।
    इस प्रकार स्पष्ट होता है कि महर्षि अत्रि की भावना अत्यन्त ही कल्याणकारी थी और उनमें त्याग, तपस्या, शौच, संतोष, अपरिग्रह, अनासक्ति तथा विश्व कल्याण की पराकष्ठा विद्यमान थी। एक ओर जहाँ उन्होंने वैदिक ऋचाओं का दर्शन किया वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपनी प्रजा को सदाचार और धर्माचरणपूर्वक एक उत्तम जीवनचर्या में प्रवृत्त होने के लिये प्रेरित किया है तथा कर्तव्या-कर्तव्य का निर्देश दिया है। इन शिक्षोपदेशों को उन्होंने अपने द्वारा निर्मित आत्रेयधर्मशास्त्र में उपनिबद्ध किया है। वहाँ इन्होंने वेदों के सूक्तों तथा मन्त्रों की अत्यन्त महिमा बतायी है। अत्रिस्मृति का छठा अध्याय वेदमन्त्रों की महिमा में ही पर्यवसित है। वहाँ अघमर्षण के मन्त्र,सूर्योपस्थान का यह 'उदु त्यं जातवेदसं'मन्त्र, पावमानी ऋचाएँ, शतरुद्रिय, गो-सूक्त, अश्व-सूक्त एवं इन्द्र-सूक्त आदि का निर्देश कर उनकी महिमा और पाठ का फल बताया गया है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि महर्षि अत्रि की वेद मन्त्रों पर कितनी दृढ़ निष्ठा थी। महर्षि अत्रि का कहना है कि वैदिक मन्त्रों के अधिकारपूर्वक जप से सभी प्रकार के पाप-क्लेशों का विनाश हो जाता है। पाठ कर्ता पवित्र हो जाता है, उसे जन्मान्तरीय ज्ञान हो जाता है। जाति-स्मरता प्राप्त हो जाती है और वह जो चाहता है वह प्राप्त कर लेता है। अपनी स्मृति के अन्तिम 9वें अध्याय में महर्षि अत्रि ने बहुत सुन्दर बात बताते हुए कहा है कि यदि विद्वेष भाव से वैरपूर्वक भी दमघोष के पुत्र शिशुपाल की तरह भगवान का स्मरण किया जाय तो उद्धार होने में कोई संदेह नहीं फिर यदि तत्परायण होकर अनन्य भाव से भगवदाश्रय ग्रहण कर लिया जाय तो परम कल्याण में क्या संदेह?
    इस प्रकार महर्षि अत्रि ने अपने द्वारा द्रष्ट मन्त्रों में, अपने धर्मसूत्रों में अथवा अपने सदाचरण से यही बात बतायी है कि व्यक्ति को सत्कर्म का ही अनुष्ठान करना चाहिये।
    • चन्द्रदेव
      चन्द्रमा से मनुष्य बहुत प्रभावित रहा है। जीवन के हर पहलू में चन्द्रमा को उसने स्वयं से जोड़ कर रखा। मनुष्य ने विभिन्न लक्षणों के आधार पर चन्द्रमा के बहुत से वैकल्पिक नाम तो रखे ही साथ ही विशिष्ट कुल-परंपरा से भी चन्द्रमा को जोड़ा।
      चंद्रवंशी
      ब्राह्मणों-क्षत्रियों के कई गोत्र होते हैं उनमें चंद्र से जुड़े कुछ गोत्र नाम हैं जैसे चंद्रवंशी। पौराणिक संदर्भों के अनुसार चंद्रमा को तपस्वी अत्रि और अनुसूया की संतान बताया गया है। जिसका नाम 'सोम' है। दक्ष प्रजापति की सत्ताईस पुत्रियां थीं जिनके नाम पर सत्ताईस नक्षत्रों के नाम पड़े हैं। ये सब चन्द्रमा को ब्याही गईं। चन्द्रमा का इनमें से रोहिणी के प्रति विशेष अनुराग था। चन्द्रमा के इस व्यवहार से अन्य पत्नियां दुखी हुईं तो दक्ष ने उसे शाप दिया कि वह क्षयग्रस्त हो जाए जिसकी वजह से पृथ्वी की वनस्पतियां भी क्षीण हो गईं। विष्णु के बीच में पड़ने पर समुद्र मंथन से चन्द्रमा का उद्धार हुआ और क्षय की अवधि पाक्षिक हो गई। एक अन्य कथा के अनुसार चन्द्रमा ने वृहस्पति की पत्नी तारा का अपहरण किया था जिससे उसे बुध नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ जो बाद में क्षत्रियों के चंद्रवंश का प्रवर्तक हुआ। इस वंश के राजा खुद को चंद्रवंशी कहते थे।
      अन्य नाम
      इसी तरह चंद्र से जुड़ा एक अन्य नाम सोमवंशी भी है। चंद्रवंश के प्रथम राजा का नाम भी सोम माना जाता है जिसका प्रयाग पर शासन था। ब्राह्मणों में एक उपनाम होता है आत्रेय अर्थात अत्रि से संबंधित या अत्रि की संतान। चूंकि चंद्र अत्रि ऋषि की संतान थे इसलिए आत्रेय भी चंद्रवंशी ही हुए। चंद्रवंशियों का एक अन्य उपनाम अत्रिज भी होता है जिसका अर्थ हुआ अत्रि से जन्मा यानी चंद्र। एक अन्य गोत्र होता है चांद्रात अर्थात चंद्र से संबंधित। अत्रि को ब्रह्मा के नेत्रों से उत्पन्न बताया गया है। इसी तरह अत्रि पुत्र सोम या चन्द्रमा को भी अत्रि के नेत्रों से जन्मा बताया गया है इसलिए उसे अत्रिनेत्रज भी कहा जाता है। चन्द्रमा का एक अन्य नाम है सुधाकर या सुधांशु। इस नाम में भी जल तत्त्व की उपस्थिति नज़र आ रही है जो चन्द्रमा की पहचान है। सुधा का अर्थ भी अमृत, मधुर तरल ही होता है। इसका अर्थ जल भी है। पृथ्वी पर अगर अमृत है तो वह जल ही है। सुधा को देवताओं का पेय कहा गया है जो अमृत ही होता है। सोम का दूसरा नाम भी अमृत और जल ही है। सुधांशु का अर्थ हुआ जिसकी किरणें अमृत समान हैं। सुधाकर यानी अमृत मय करने वाला। सुधा का एक अर्थ श्वेत-धवल-उज्ज्वल भी होता है। चांदनी ऐसी ही होती है। सुधा चूने की सफ़ेदी या ईंट को भी कहते हैं। सुधा यानी जल, आर्द्रता, शीतलता का भंडार होने की वजह से इसका एक नाम सुधानिधि भी है। रात्रि को प्रकाशित करने की वजह से इसका एक नाम निशापति भी है।

    • चंद्रमा
      चंद्रमा अत्रि मुनि का पुत्र था। चन्द्रमा को ब्रह्मा का अंशावतार भी माना जाता है। प्रजापति ब्रह्मा ने उन्हें औषधियों का स्वामी बनाया। चंद्रमा ने अपने राज्य की महिमा बढ़ाने के लिए एक बार राजसूय यज्ञ किया।तत्पश्चात वे इतनामदोन्मत होगये कि देवताओं के गुरु वृहस्पति कीतारा नामक सुंदर पत्नी का हरण कर लिया। देव ऋषि वृहस्पति ने अपनी पत्नी को पुनः प्राप्त करने के बहुतप्रयास किये किन्तु सफल नहीं हुए।तब बीच बचाव के उद्देश्य से वे देवताओं के राजा इंद्र के पास गए। देवेन्द्र ने चंद्रमा को समझाते हुएतारा को लौटाने के लिए कहा किन्तु वेनहीं माने। तदोपरांत ब्रह्मा आदि अन्य देवताओं ने भी उनको बहुत समझाया. परन्तु चंद्रमा ने वृहस्पति की पत्नी को लौटने से इंकार कर दिया. इस पर देवराज इंद्र सेना लेकर चंद्रमा से लड़ने को आमादा हो गए। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य थे। वेदेवगुरु वृहस्पति से द्वेष मानते थे जिस कारण चंद्रमा की सहायता के लिए सेना लेकर वे मैदान में आ डेट। शुक्राचार्य की सेना में जम्भ, कुम्भजैसे भयंकर दैत्य शामिल थे। तारा के लिए देवताओं और असुरों में घोर संग्राम छिड़ गया। देवासुर संग्राम इतना भयंकर था कि उससे संसार के समस्त प्राणी क्षुब्ध हो गए। वे सब इकट्ठे होकर ब्रह्मा जी की शरण में गए। तब भगवान ब्रह्माजी ने बीच-बचावकरते हुए शुक्र, रूद्र, देव, दानव सब में समझौता करा दिया। तारा पुनः देवऋषि वृहस्पति को मिल गयी। तारा उस समय गर्भवती थी। उसको गर्भावस्था में देख वृहस्पति क्रोधित हो गए और धमकाते हुए कहा -"मेरे क्षेत्र में दूसरे का गर्भ सर्वथा अनुचित है, इसे शीघ्र दूर करो।" . वृहस्पति के ऐसा कहने पर तारा ने झाड़ियों के मध्य जाकर गर्भ को गिरा दिया। जिस गर्भ को तारा ने झाड़ियों में त्यागा वह अत्यंत सुंदर तेजधारी बालक निकला। वह इतना रूपवान था कि उसके समक्ष समस्त देवताओं का तेज फीका प्रतीत होता था। उस सुंदर एवं तेजधारी बालक को देख कर चंदमा और वृहस्पति दोनों ने अपना पुत्र बनाना चाहा। उसको पाने कीउन दोनों की इस उत्सुकता को देख कर देवताओं के मन में संदेह उत्पन्न हो गया। तब वे तारा से पूछने लगे-"देवी! सत्य बताओ तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न यह पुत्र किसका है?" किन्तुलज्जावश तारा चुपचाप यथावत खड़ी रही और कुछ बोल नहीं सकी। देवताओं के बार-बार पूछने पर भी उसने कुछ नहीं बताया. इस पर तारा का वह बालक कुपित होकर कहने लगा- " शीघ्र पूर्ण सत्य वर्णन करो नहीं तो मै तुम्हे भयंकर शाप दे दूंगा।" ब्रह्मा जी ने उस बालक को शाप देने से मना किया और स्वयं तारा से सच्चाई पूछने लगे। तब तारा बोली - "यह बालक चन्द्र्मा का पुत्र है।" तारा के मुख से यह शब्द सुनकर चंद्रमा बहुत प्रसन्न हुए और उस बालक को गले लगाते हुए बोले- "अति उत्तम वत्स! तुम बहुत बुद्धिमान हो इस लिए मैं तुम्हारा नाम "बुध" रखता हूँ।" इस प्रकार चंद्रमा का यह पुत्र बुध के नाम से विख्यात हुआ।

      ५. बुध
      बुध चन्द्रमा का पुत्र था। वह बहुत रूपवान और शक्तिशाली था। उनका जन्म तारा की कोख से हुआ। तारा देवताओं के गुरु वृहस्पति की पत्नी थी। एक बार चन्द्रमा ने, जो महर्षि अत्रि के पुत्र थे, वृहस्पति की इस पत्नी का हरण करके अपनी पत्नी बना लिया। इंद्रआदि देवों के समझाने के उपरान्त जब चंद्रमा ने तारा को नहीं लौटाया तो इंद्र सेना लेकर युद्ध के लिए आमादा हो गए। दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य थे। वे देवगुरु वृहस्पति से द्वेष रखते थे। इस कारण चंद्रमा की सहायता के लिए अपनी विशाल एवं शक्तिशाली सेना लेकर इंद्र से युद्ध करने के उद्देश्य से शुक्राचार्य भी मैदान में आ डेट। परिणाम स्वरुप तारा के लिए इस देव-असुर संग्राम आरम्भ हो गया और धीरे-धीरे उसने भयंकर रूप धारण लिया और चारो तरफ भय व्याप्त हो गया। तब लोग बीच-बचाव करने के लिए ब्रह्माजी की शरण में गए। ब्रह्मा जी इस संग्राम को समाप्त करवाने में सफल हुए। उनके समझाने पर चंद्रमा ने तारा को लौटा दिया जिससे वह पुनः अपने पति वृहस्पति के पास आगयी। इस दौरान तारा गर्भवती हो गई थी। वृहस्पति को जब यह ज्ञात हुआ कि उसकी पत्नी दुसरे का गर्भ धारण करके आई है तब वह बहुत क्रोधित हुआ। उसने तारा को कठोर शब्दों में बहुत भला-बुरा कहा और आज्ञा देते हुए उससेकहा - "मेरे क्षेत्र में दूसरे का गर्भ सर्वथा अनुचित है तुम इसे जल्द दूर करो।" तब तारा ने झाड़ियों के मध्य जाकर गर्भ को गिरा दिया। लेकिन जिस गर्भ को तारा ने झाड़ियों में गिराया वह बहुत सुन्दर रूपवान तेजस्वी बालक निकला। उसके सुन्दर रूप को देखकर वृहस्पति और चंद्रमा दोनों ललचा गए और दोनों ने अपना पुत्र बनाना चाहा। इससे दोनों में विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ गया की उनको बीच बचाव के लिए पुनः देवताओं की शरण में जाना पड़ा। देवताओं ने तारा से यह जानने का भरसक प्रयत्न किया कि उसके गर्भ से उत्पन्न यह बालक किसका है,किन्तु लज्जावश तारा चुप-चाप खड़ी रही और कुछ बोल नहीं सकी। ब्रह्मा ने भी उसको बहुत समझाने की कोशिश की लेकिन उसने किसी को कुछ नहीं बताया। देवतावो के के बहुत पूछने पर भी तारा ने अपना मुंह नहीं खोला। उसके गर्भ से उत्पन्न बालक भी उस समय वहां मौजूद था। अपनी माता के इस आचरण से वह क्रोधित हो गया। क्रोध भरे कठोर शब्दों में डांटते हुए उसने अपनी माता से कहा -" तुम शीघ्र सारी सच्चाईबता दो नहीं तो मैं तुम्हें शाप दे दूंगा।" बालक के मुख से यह शब्द सुनकर सभी अचंभित रह गए। शाप देने के बाद तारा का अहित होगा -यह सोच करब्रह्मा जी उस बालक को ऐसा करने से रोक दिया और उसकी माता को पुनः समझाने का प्रयास किया। इस बीच अपनेपुत्र के फटकारने से तारा भयभीत हो चुकी थी। इसलिए उसने ब्रह्मा की बात मान ली और सब कुछ सच सच बता दिया। उसने कहा - "मेरे गर्भ से उत्पन्न यह बालक चंद्रमा का पुत्र है।" अपने पुत्र की बुद्धिमत्ता देखकर चंद्रमा बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंनेउसकी बहुत प्रशंसा की और गले लगाया। वे बोले -"वत्स! तुम बहुत बुद्धिमान हो इसलिए मैं तुम्हारा नाम 'बुध' रखताहूँ" तब से वह बालक चन्द्रमा का पुत्र कहलाया और बुध के नाम से ख्याति प्राप्त की। बुध को चंद्रमा का पुत्र माना गया इसलिए वे चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहलाये। यदि उनको महर्षि वृहस्पति का पुत्र माना जाता तो वे ब्रह्मण कहलाते। बुध का स्वरुप अत्यंत सुंदर और मनमोहक था। इसी कारण महर्षि वृहस्पति तारा को गर्भवती देख कर पहले तो क्रोधित हो गए, परन्तु जन्म के बाद जब देखा कि यहतो सुन्दर सुवर्णमय रूपवान बालक है तब वह मुग्ध हो गए तथा उसे अपना पुत्र बनाना चाहा। बुध का विवाह सूर्यवंशी राजकुमारी इला से हुआ था। इला का जीवन परिचय नीचे की पक्तियों में देखें।
      बुध की पत्नी इला का परिचय :-
      ब्रह्मा के दस मानस पुत्रों में ज्येष्ठ महर्षि मरीचि थे। मरीचि केएक पुत्र का नाम कश्यप था। कश्यप के पुत्र का नाम विवस्वान था।विवस्वान का अर्थ सूर्य है।विवस्वान(सूर्य) के मनु नामक एक पुत्र हुआ इला इसी मनु की पुत्री थी। मनु की अनेक संताने थीं, किन्तु उनमें इक्ष्वाकु नामक पुत्र और इला नामक पुत्री मुख्य माने जाते हैं। इक्ष्वाकु के वंशज सूर्यवंशी क्षत्रिय और उसकी बहन इला के वंशज चंद्रवंशी क्षत्रिय कहलाये। सूर्य वंश में भगवान श्रीराम का और चन्द्रवंश में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था। इला का जन्म सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल में हुआ और विवाह चंद्रवशी क्षत्रिय कुल में बुध से हुआ । बुध चंद्रमा का पुत्र था। इसी कुल में आगे चलकर यदु का जन्म हुआ और उनके वंशज यदुवँशी क्षत्रिय कहलाये ।पुराण आदि ग्रंथों में वर्णन आता है कि इला पहले सुदुयम्न नामक पुत्र था। एक दिन वह शिकार करते हुए मेरु पर्वत की तलहटी में जा पहुंचा | भगवान शंकर के शाप के कारण उस वन में जाने वाला हर पुरुष स्त्री हो जाता था। इस कारण सुदुयम्न भी अपने अनुचरों सहित स्त्री हो कर वन में विचरने लगा । उसी समय शक्तिशाली बुध ने देखा कि मेरे आश्रम के पास बहुत से स्त्रियों से घिरी हुई एक रूपवान रमणी विचर रही है। उन्होंने इच्छा जाहिर की क़ि यह सुन्दरी मुझे मिल जाये। उस सुन्दरी ने भी बुध को अपना पति बनाने की इच्छा प्रकट की। इस प्रकार बुध ने इला से विवाह कर लिया और कुछ समय बाद उनके परुरवा नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। ऐसा वर्णन भी आता है क़ि गुरु वशिष्ठ द्वारा भगवान शंकर की आराधना करने पर भगवान् शंकर ने सुद्युम्न को एक महीना पुरुष व एक महीना स्त्री रहने का वर दिया|
    ६.पुरुरवा :-
    पुरुरवा का जन्म महाराज बुध के द्वारा इला के गर्भ से हुआ। वे परम तेजस्वी,दानशील,यज्ञकरता, पराक्रम दिखानेवले, सत्यभाषी, और पवित्र विचार वाले पुरुष थे। उनका रूप अत्यंत सुंदर था। वे अपने समय मे तीनो लोको मे अनुपम यशस्वी थे | पुरुरवा की माता इला मनु की पुत्री थीं।उनको मनु से प्रतिष्ठान नामक नगर का राज्य मिला था। इला ने अपने पुत्र पुरुरवा को प्रतिष्ठान का राजा बनाया। तब से प्रतिष्ठान नगरी बहुत काल तक चंद्रवंशी राजाओ की राजधानी ऱ्ही। उर्वशी नामक अप्सरा पुरुरवा की पत्नी थी। उर्वशी कौन थी, इसका संक्षिप्त विवरण आगे की पंक्तियों में दिया गया है।
    उर्वशी का परिचय :-
    उर्वशी स्वर्ग की अप्सरा थी। साहित्यिक ग्रंथों और पुराण आदि मेंवर्णन आता है कि उर्वशी की उत्पत्ति नारायण की जंघा से हुई और वह सौंदर्य की मूर्ति थी। पद्म पुराण के अनुसार इनका जन्म कामदेव के उरू से हुआ। श्रीमदभागवत के अनुसार वह स्वर्ग की सबसे सुंदर अप्सरा थी। कहा जाता है कि ब्रह्मा के शाप के कारण उर्वशी को मनुष्य-लोक मे आना पडा।यद्यपि शाप के कारण देवलोक छोड़कर उसको मनुष्य-लोक मे आना पडा और इससे उनका दुखी होना भी स्वाभाविक था, तथापि जब उनको ज्ञात कुआ कि पुरुष शिरोमणी पुरुरवा मूर्तिमान कामदेव के समान सुंदर है तव वह धैर्य धारण कर उनके पास चली आयी। उर्वशी के सौन्दर्य कोदेख कर राजा पुरुरवा भी हर्ष से खिल उठे। उर्वशी ने महाराज पुरुरवा को अपना पति चुना, परंतु इसके लिए उसने राजा के सामने तीन शर्तें रखीं, जो इस प्रकार हैं - "मै केवल घी खाउंगी, मैथुन के अलावा अन्य किसी समय आपको वस्त्रहीन न देख सकूंगी, मेरे सकाम होने पर ही आप सहवास करेंगे। मेरे द्वारा स्वर्गलोक से लाये हुये दो भेड है, मै उन्हें पुत्र के समान स्नेह करती हू। ये भेंड हमेशा मेरी पलंग के साथ बांधे रहेंगे और आपको इनकी रक्षा करनी पडेगी। जब तक आप इन शर्तो का पालन करते रहेंगे तब तक ही मै आपके पास रहूंगी।" स्वर्ग की उस अप्सरा के सौन्दर्य को देखकर से राजा इतना मुग्ध हो गया था कि उसकी हर बात उसे माननी पडी। इस प्रकार वह श्रेष्ठ अप्सरा महाराज पुरुरवा के यहां रहने लगी। उर्वशी को राजा मे आसक्त होकर रहते हुये उनसठ वर्ष बीत गये, तब गन्धर्वो को उसकी चिंता सताने लगी। उर्वशी को देवताओ मे फिर किस प्रकार लाया जाय-वे इसका उपाय सोचने लगे। तब विश्वावसु नामक एक गंधर्व ने कहा- " मै उर्वशी और राजा पुरुरवा के बीच हुये अनुबंध को भली-भाँति जानता हूँ । राजा की प्रतिज्ञा भंग होने पर उर्वशी उनको छोड देगी। राजा की प्रतिज्ञा तोडने का उपाय भी मै जनता हू।" सब गन्धर्वों की सहमति से इस काम को सिद्ध करने के लिये वह कुछ सहायको को साथ लेकर वह राजा के नगर प्रतिष्ठानपुर गया। गन्धर्वों ने वहां रात के अंधेरे मे उर्वशी की पलंग से बंधे एक भेड को चुरा लिया। उर्वशी को इसका पता चला तो उसने राजा से कहा-"राजन! मेरे बच्चे को चोर उठा ले गये।" रात का अंधेरा था और राजा निःवस्त्र लेटा था। वह यह सोचकर नही उठा कि उर्वशी उसे नंगा देख लेगी और उसकी प्रतिज्ञा भंग हो जयेगी। थोडी देर बाद गन्धर्वो ने उर्वशी का दूसरा भेड भी चुरा लिया। दूसरे भेड के चुराये जाने पर उसने राजा से कहा - "राजन! मेरे दोनो पुत्रचोरी हो गये और आप कायरो की भान्ति सोये पडे हैं. उनको बचाने का बिलकुल प्रयास नहीं किया। धिक्कार है आपके पौरुष को '" उर्वशी के इस प्रकार कटु वचन सुनकर राजा विस्तर से उठकर उन भेडो को छुडाने के लिये दौड पड़ा। गंधर्व तो यही चाहते थे। उनके लिये उचित अवसर था। उन्होने अपनी शक्ति सेभारी बिजली चमका कर रोशनी कर दी जिससे वह विशाल भवन एक साथ प्रकाशित हो गया। तब उर्वशी ने राजा का नंगा शरीर देख लिया। राजा को नंगा देखते ही उर्वशी शाप मुक्त हो गई और अंतर्धान हो वहाँ से चली गई. राजा भेडो को छुडा कर वापस आया और जबमहल मे घुसा तो उसे वहाँ उर्वशी नही मिली। इससे राजा व्याकुल हो गया और उर्वशी की खोज मे वह पृथ्वी पर जगह-जगह भटकने लगा। बहुत समय बीत जाने के बाद, एक दिन उसने उर्वशी को हैमवती नामावली पुष्करिडी मे स्नान करते हुए देखा। उस समय वह सखियो के साथ क्रीडा मग्न थी और प्रसन्नता से झूम रही थी। उसको देखकर राजा विलाप करने लगा। जब उर्वशी ने राजा को इस प्रकार विलाप करते देखा तो वह जल से बहार आयी और उससे कहा-' प्रभो! मै आपके द्वारा गर्भवती हू। निश्चय ही मेरे गर्भ से आपको संतान की प्राप्ति होगी। आपने अपना वचन नहीं निभाया। इसलिए मैं शापमुक्त हो गई। मै अब आपके साथ नहीं रह सकती। लेकिन आपकी पत्नी होने के नाते साल में एक रात्रि मै आपके साथ रहूंगी। हे राजन! इस प्रकार प्रतिवर्ष मेरे गर्भ से आपके पुत्र उत्पन्न होगे।" राजा प्रसन्न हो गया और वहां से अपने महल वापस आ गया। एक वर्ष बीतने पर उर्वशी उसके पास फिर आयी। महायशस्वी पुरुरवा उसके साथ एक रात्रि रहे। यहक्रम कई वर्षो तक अविरल चालता रहा। उर्वशी प्रतिवर्ष एक रात्रि के लियेराजा के पास आती रही। कई वर्ष बीत जाने के बाद उर्वशी ने राजा से कहा-" हे राजन! गंधर्व आपको वर देना चाहते है। इसलिए आप मेरे साथ स्वर्गलोक चलो। आप उनसे 'गन्धर्वो की समानता' वाला वरदान मांग लीजिये। गन्धर्वों की समानता प्राप्त कर लेने के बाद आप मेरे साथ स्वर्ग लोक में रह सकोगे" राजा ने वेसा ही किया और गन्धर्वो के समक्ष जाकर उनकी 'समता' का वरदान माँगा। "एवमवस्तु" कहते हुये गन्धर्वो ने एक थाली मे अग्नि लाकर पुरुरवा को दिया और कहा कि इस अग्नि से यज्ञ करने के फलस्वरूप आप हमारे लोक मे आ जाओगे। राजा अग्नि लेकर अपने नगर के ओर चल पडा। मार्ग मे एक स्थान पर अग्नि को रख कर अपने पुत्रो को साथ लेकर वह घर आ गया। कुछ दिन बाद राजा फिर वन मे अग्नि लेने गया । परंतु वहाँ उसको अग्नि नही मिली।. अग्नि के स्थान पर पीपल के एक वृक्ष को खडा देखा। पुरुरवा और उर्वशी के मेल से छ पुत्र हुए जिनके नाम , आयु,श्रतायु,सत्यायु,,रय,विजय ,और जय थे |

    उसने यह बात गन्धर्वो को बताई तो गन्धर्वो ने कहा- राजन तुम पीपल की अरणी बनाकर अग्नि उत्पन्न करो। महाराज पुरुरवा ने वेसा ही किया।पीपल की अरणी से उत्पन्न अग्नि करके उससे यज्ञ किया और गन्धर्वो की समानता प्राप्त की। उसके बाद वह गंधर्व लोक पहुंच गया।कई ग्रंथो मे वर्णन आता है कि महाराज पुरुरवा ने अरणी के माध्यम से अग्नि प्रज्वलित करने की कला सीखी। यह कला उस समय तक किसी अन्य व्यक्ति को ज्ञात नहीं थी।
    महाराज पुरुरवा ने अपने देश भारत मे इस कला को प्रचलित किया। पुरुरवा के छः पुत्र हुये. उनके नाम इस प्रकार है। (१) आयु (२) धीमान (३) अमावसु (४) विश्वासु (५) शतायु और (६)श्रुतायु सभी ग्रंथ इनके पुत्रो की संख्या के बारे मे एक मत नही है। कई ग्रंथो मे यह संख्या सात बतायी गई तो कईयो मे नौ। पुरुरवा के एक पुत्र का नाम आयु था। वह जयेष्ट होने के साथ श्रेष्ठ भी था।पुरुरवा के बाद आयु को प्रतिष्ठान की गद्दी प्राप्त हुई। उसके वंशजों का राज्य बहुत काल तक प्रतिष्ठान मे चलता रहा।
    आयु के वंशज गौरवशाली हुये।आयु के नहुष नाम का पुत्र हुआ।नहुष के ययाति नामक पुत्र हुआ।
    राजा आयु
    राजा आयु महाराज पुरुरवा के पुत्र थे उनका जन्म अप्सरा उर्वशी के गर्भ से हुआ था। पुरुरवा के बाद वे प्रतिष्ठान राज्य के उतराधिकारी बने। महारज आयु का विवाह राहु की पुत्री बिरजा से हुआ था। उनके नहुष, क्षत्रवृद्ध, रंभ,रजि और अनेनस नामक पांच पुत्र हुए। उनके ज्येष्ठ पुत्र नाम नहुष था। ज्येष्ठ पुत्र होने कारण नहुष राज्य के उतराधिकारी बने।
    आयु पुत्र महाराज नहुष
    राजा नहुष महाराजा आयु के पुत्र थे उनकी पत्नी विरजा के गर्भ से छः महाबली पुत्र उत्पन्न हुए. उनके नाम इस प्रकार है- यति, ययाति, संयाति, आयाति, वियाति और कृति। ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण नहुष के बाद यति प्रतिष्ठान राज्य के उत्तराधिकारी थे। किन्तु यति को राज्य की इच्छा न थी ओर वे वेराग्य को चले गये इस कारण ययाति वहाँ के राजा बने। महाराज नहुष के बारे में प्रसिद्द है। कि वे कुशल उच्चकोटि के शासनकर्ता थे। निपुण शासनकर्ता होने के कारण नहुष को कुछ समय के लिए देवताओं के राजा के रूप में इन्द्रासन पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कहा जाता है कि देवताओ के राजा इंद्र ने वृतासुर का वध कर दिया था। इस कारण इंद्र को ब्रह्म हत्या का दोष लगा। इस महादोष के प्रायश्चित के लिए वे एक सरोवर के अंदर गए और वहाँ कमल की नाली में सूक्ष्म रूप धारण करके छुप गए।इससे इंद्र का आसन खाली हो गया। देवताओ को महाराज नहुष की शासन कुशलता का ज्ञान था। ये सोचकर कि इन्द्रासन खाली न रहे इसलिए देवताओ ने मिल कर उस पर नहुष को बिठा दिया।कुछ समय तक महाराज नहुष ने तीनो लोको का शासन बड़े व्यस्थित ढंग से किया। सब जगह उनके क्रिया कलापों की प्रशंसा होने लगी। परन्तु धीरे-धीरे स्वर्ग की विलासता,नित्य सुंदर अप्सराओ के दर्शन तथा सर्वोपरि सत्ता के मद ने उनके मस्तिक को दूषित करना शुरू कर दिया। इंद्र की परम सुन्दरी साध्वी पत्नी का नाम शची था। वह बहुत सुन्दर और रूपवान थी। उसके सौन्दर्य को देखकर नहुष मोहित हो गए। वे शची को प्राप्त करने की चेष्टा करने लगे। देवताओं को जब यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने राजा को बहुत समझाया और कहा कि उनके द्वारा ऐसी चेष्टा करना अशोभनीय है।परन्तु वे नहीं माने।इन्द्राणी को वश में करने के लिए एक दिन नहुष ने ऋषियों से पालकी उठवा कर उसके भवन की और चले।पालकी उठाकर ऋषिगण मार्ग में धीरे -धीरे चल रहे थे तो नहुष क्रोधित हो कर उन्हें जल्दी-जल्दी तेज चलने को कहा। यह नजारा देखकर पालकी ढो रहे अगस्तय मुनि ने नहुष को सांप बन जाने का शाप दे दिया। उनको पालकी से उतारकर आकाश से पृथ्वी पर गिरा दिया।इस प्रकार नहुष का पतन हो गया।

    ययाति:-
    ययाति राजा नहुष की रानी बिरजा के गर्भ से उत्पन्न पुत्र थे वे भारत के पहले चकर्वर्ती सम्राट हुये जिसने अपने राज्य का बहुत विस्तार किया॥ इनकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी इसलिए इनके पिता नहुष को अगस्तय मुनि आदि ऋषियों ने इन्द्रप्रस्थ से गिरा दिया और अजगर बना दिया तथा इनके ज्येष्ठ भ्राता यति ने राज्य लेने से इन्कार कर दिया।तब ययाति राजा के पद पर बैठे।उन्होंने अपने चारों छोटे भाइयों को चार दिशाओ में नियुक्त कर दिया और आप शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह करके पृथ्वी की रक्षा करने लगे। देवयानी से दो पुत्र यदु और तुर्वसु हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए।
    देवयानी के गर्भ से महाराज ययाति के यदु नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ और यदु से यदुवंश चला। महाराज ययाति क्षत्रिय थे तथा देवयानी ब्राह्मण पुत्री थी। यह असम्बद्ध विवाह कैसे हुआ?
    देवयानी और शर्मिष्ठा कौन थी?
    इसका विवरण इस प्रकार है:- शर्मिष्ठा दैत्यों के राजा वृषपर्वा की कन्या थी। वह अति माननी अति सुंदर राजपुत्री थी।राजा को शर्मिष्ठा से विशेष स्नेह था। पुराणों के अनुसार शुक्राचार्य दैत्यों के राजगुरु एवं पुरोहित थे।देवयानी उन्ही दैत्य गुरु शुक्राचार्य की पुत्री थी तथा शर्मिष्ठा की सखी थी। रूप-लावण्य में देवयानी शर्मिष्ठा से किसी प्रकार से कम न थी। देवयानी और शर्मिष्ठा दोनों महाराज ययाति की पत्नियाँ थी। ययाति क्षत्रिय थे तथा देवयानी ब्राहमण पुत्री थी तो यह असम्बद्ध विवाह कैसे हुआ?
    इस विषय में कहा जाता है कि एक दिन शर्मिष्ठा अपनी हजारो सखियों के साथ नगर के उपवन में टहल रही थी उनके साथ गुरु पुत्री देवयानी भी थी उस उपवन में सुंदर सुंदर सुहावने पुष्पों से लदे हुए अनेको वृक्ष थे उसमे एक सुंदर सरोवर भी था सरोवर में सुंदर सुंदर मनमोहक कमल खिले हुए थे उनपर भौरे मधुरता पूर्वक गुंजार कर रहे थे इस सरोवर पर पहुचने पर सभी कन्याओ ने अपने अपने वस्त्र उतारकर किनारे रख दिया और आपस में एक दूसरे पर जल छिड़कती हुई जलविहार करने लगी उसी समय भगवान शंकर पार्वती के साथ उधर से निकले तो भगवान शकँर को आता देख सभी कन्याये लज्जावश दौड़ कर अपने अपने वस्त्र पहनने लगी जल्दी में भूलवश शर्मिष्ठा ने देवयानी के वस्त्र पहन लिए इस पर देवयानी क्रोधित हो कर बोली ये शर्मिष्ठा तु एक असुर पुत्री होकर तुमने ब्रह्मण पुत्री के वस्त्र पहनने का साहस कैसे किया?
    जिन ब्राह्मणों ने अपने तपोबल से इस संसार की सृष्टि की है बड़े-बड़े लोकपाल तथा देव इंद्र आदि जिनके चरणों की वंदना करते है उन्ही ब्राह्मणों में श्रेष्ट हम भृगुवंशी है मेरे वस्त्र धारण करके तूने मेरा अपमान किया है देवयानी के अपशब्दों को सुनकर शर्मिष्ठा तिलमिला गयी और क्रोधित होकर देवयानी को कहा ये भिखारिन आप तूने अपने आप को क्या समझा है? तुझे कुछ पता भी है कि नही है? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजे पर रोटी के टुकड़ो के लिए ताकते रहते है उसी तरह तू अपने बाप के साथ मेरी रसोई की तरफ देखा करती है क्या मेरे ही दिए हुए टुकडो से तेरा शरीर नहीं पला?
    यह कहकर शर्मिष्ठा ने देवयानी के पहने हुए कपडे छीन कर उसे नंगी ही उपवन के एक कुएं में ढकेलवा दिया देवयानी को कुएं में ढकेलकर शर्मिष्ठा सखियों को लेकर घर चली आयी।
    संयोगवश राजा ययाति उस समय वन में शिकार खेलने गए हुए थे और वे उधर से गुजर रहे थे उन्हें बड़ी प्यास लगी थी पानी की खोज करते हुए वे उसी कुएं के पास गए जिसमे देवयानी को धकेल दिया गया था उस समय वह कुए में नंगी खड़ी थी राजा ययाति ने उसे पहनने के लिए अपना दुपट्टा दिया और दया करके अपने हाथ से उसका हाथ पकड़कर कुएं से बहार निकाल लिया कुए से बहार निकलने पर देवयानी ने ययाति से कहा हे वीर जिस हाथ को तुमने पकड़ा है उसे अब कोइ दूसरा न पकडे। मेरा और आपका सम्बन्ध ईश्वरकृत है मनुष्यकृत नहीं निसंदेह मै बाह्मण पुत्री हूँ लेकिन मेरा पति ब्रह्मण नहीं हो सकता क्योकि वृहस्पति के पुत्र कच ने ऐसा श्राप दिया है कि देवयानी के ऐसा कहने पर राजा न चाहते हुए भी दैव की प्रेरणा से ययाति उसकी बात मान गए इसके बाद ययाति अपने घर चले गये उधर देवयानी रोती हुई अपने पिता शुक्राचार्य के पास आई और शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था वह कह सुनाया पुत्री की दशा देख कर शुक्राचार्य का मन उचाट गया वे पुरोहिती की निंदा करते हुए तथा भिक्षा वृति को बुरी कहते हुए अपनी बेटी देवयानी को साथ लेकर नगर से बाहर चले गए यह समाचार जब वृषपर्वा ने सुना तो उनके मन में शंका हुई कि गुरूजी कही शत्रुओ से मिलकर उनकी जीत न करवा दे अथवा मुझे शाप न दे दें तो वो ऐसा विचार करके अपने पिता के साथ गुरूजी के पास आयी और मस्तक नवाकर पैरो में गिरकर क्षमा याचना किया तब शुक्राचार्य जी बोले हे राजन आप मेरी पुत्री देवयानी को मना लो वह जो कहे उसे पूरा करो वृषपर्वा ने कहा बहुत अच्छा तब देवयानी बोलीं मै पिता की आज्ञा से जिस पति के घर जाऊं अपनी सहेलियों के साथ आपकी पुत्री शर्मिष्ठा उसके यहाँ पर दासी बनकर रहे शर्मिष्ठा इस बात से बहुत दुखी हुई परन्तु यह सोच कर देवयानी की शर्त मान ली कि इससे मेरे पिता का बहुत काम सिद्ध होगा तब शुक्राचार्य ने देवयानी का विवाह ययाति के साथ कर दिया एक हज़ार सहेलियों सहित शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनाकर उसके घर भेज दिया समय बीतता गया देवयानी लगन के साथ पत्नी-धर्म का पालन करते हुए महाराज ययाति के साथ रहने लगी शर्मिष्ठा सहेलियों सहित दासी की भाति देवयानी की सेवा करने लगी।
    शर्मिष्ठा राजा ययाति की पत्नी कैसे बनी?
    आगे की पंक्तियों में इसका संक्षिप्त वर्णन किया गया है कुछ दिनों के बाद देवयानी पुत्रवती हो गई| देवयानी को संतान देख शर्मिष्ठा ने भी संतान प्राप्ति के उद्देश्य से राजा ययाति से एकांत में सहवास की याचना की| इस प्रकार की याचना को धर्म-संगत मानकर शुक्राचार्य की बात याद रहने पर भी उचित काल पर राजा ने शर्मिष्ठा से सहवास किया| इस प्रकार देवयानी से यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र हुए तथा शर्मिष्ठा से दुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए|
    जब देवयानी को ज्ञात हुआ कि शर्मिष्ठा ने मेरे पति द्वारा गर्भ धारण किया था तो वह क्रुद्ध हो कर अपने पिता शुक्राचार्य के पास चली गयी| राजा ययाति भी उसके पीछे- पीछे गया| उसे वापस लाने के लिए बहुत अनुनय-विनय किया परन्तु देवयानी नही मानी| जब शुक्राचार्य को सारा वृतांत मालुम हुआ तो क्रोधित होकर बोले हे स्त्री लोलुप तू मंद बुद्धि और झूठा है| जा ओर मनुष्यों को कुरूप करने वाला तेरे शरीर में बुढ़ापा आ जाये| तब ययाति जी बोले हे ब्राह्मण श्रेष्ठ मेरा मन आपकी पुत्री के साथ सहवास करने से अभी तृप्त नहीं हुआ है|इस शाप से आपकी पुत्री का भी अनिष्ट होगा|मेरी पुत्री का अनिष्ट होगा ऐसा सोचकर बुढ़ापा दूर करने का उपाय बताते हुए शुक्राचार्य जी बोले जाओ यदि कोई प्रसन्नता से तेरे बुढ़ापे को लेकर अपनी जवानी दे दे तो उससे अपना बुढ़ापा बदल लो|
    यह व्यवस्था पाकर राजा ययाति अपने राज महल वापस आए| बुढ़ापा बदलने के उद्देश्य से वे अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु से बोले बेटा तुम अपनी तरुणावस्था मुझे दे दो तथा अपने नाना द्वारा शापित मेरा बुढ़ापा स्वीकार कर लो| तब यदु बोले पिताजी असमय आपकी वृद्धावस्था को मै लेना नहीं चाहता क्योकि बिना भोग भोगे मनुष्य की तृष्णा नहीं मिटती है|इसी तरह तुर्वसु,, दुह्यु और अनु ने भी अपनी जवानी देने से इन्कार कर दिया| तब राजा ययाति ने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु से कहा हे पुत्र तुम अपने बड़े भाइयो की तरह मुझे निराश मत करना| पुरु ने अपने पिता की इच्छा के अनुसार उनका बुढ़ापा लेकर अपनी जवनी दे दिया| पुत्र से तरुणावस्था पाकर राजा ययाति यथावत विषयों का सेवन करने लगे| इस प्रकार वे प्रजा का पालन करते हुए एक हज़ार वर्ष तक विषयों का भोग भोगते रहे परन्तु भोगो से तृप्त न हो सके|
    राजा ययाति का गृह त्याग
    इस प्रकार स्त्री आसक्त रहकर विषयों का भोग करते हुए राजा ययाति ने देखा कि इन भोगो से मेरी आत्मा नष्ट हो गयी है। सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो गयी है| तब वे वैराग्ययुक्त अपनी प्रिय पत्नी देवयानी से कहने लगे हे प्रिय मेरी तरह आचरण करने वाले की मैं एक कथा कहता हूँ इसे ध्यान पूर्वक सुनना| पृथ्वी पर मेरे ही समान विषयी का यह सत्य इतिहास है| एक बकरा था| वह अकेला वन में अपने प्रिय पात्र को ढूंढता फिरता था| एक दिन उसने एक कुएं में गिरी हुई एक बकरी को देखा| बकरे ने उसे बाहर निकलने का उपाय सोच अपनी सीगों से मिट्टी खोद कर वहाँ तक पहुँचाने का मार्ग बनाया तथा उसी मार्ग से उसे बाहर निकाला| कुएं से बाहर निकल कर बकरी उसी बकरे से सनेह करने लगी तथा उसे अपना पति बना लिया| वह बकरा बड़ा हृष्ट-पुष्ट, जवान, व्यहारकुशल , वीर्यवान तथा मैथुन में निपुण था| जब दूसरी बकरियों ने देखा कि कुएं में गिरी हुई बकरी से उसका प्रगाढ़ प्रेम सम्बन्ध चल रहा है तो उन्होंने भी उसे अपना पति बना लिया| वह उन बकरियों के साथ कामपाश में बंधकर अपनी सुधबुध खो बैठा| कुए से निकाली हुई बकरी ने जब अपने पति दूसरी बकरोयों के साथ रमण करते हुए देखा तो वह क्रोध से आग बबूला हो गयी| वह उस कामी बकरे को छोडकर बड़े दुःख से अपने पलने के पास चली गयी| वह कामी बकरा भी उसके पीछे-पीछे गया परन्तु मार्ग में उसे मना न सका| उस बकरी के मालिक को जब सारा वृतांत ज्ञात हुआ तो उसने क्रोध में आकर बकरे के लटकते हुए अंडकोष को काट दिया| परन्तु इससे बकरी का भी बुरा होगा यह सोचकर उसने अंडकोष पुनः जोड़ दिया| अंडकोष जुड़ जाने पर वह बकरा बहुत काल तक उस बकरी के साथ विषय भोग करता रहा परन्तु काम पिपासा से कभी तृप्त नहीं हुआ| हे देवयानी! यैसे ही मैं तुम्हारे प्रेमपाश में बंधकर अपनी आत्मा भूल गया हूँ| विषय-वासना से युक्त पुरुष को पृथ्वी के सभी यैश्वर्य, धन-धन्य मिलकर भी तृप्त नहीं कर सकते| क्योंकि विषय को जितना भोगते जाओ तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है| जैसे अग्नि में घी डालने पर वह बुझती नहीं है। बल्कि ज्यो-ज्यो घी डालते जाओ त्यों त्यों वह भड़कती जाती है| इसी प्रकार भोगों को जितना भोगते जाओ तृष्णा उतनी ही बढ़ती जाती है कम नहीं होती| शरीर बूढा हो जाने पर भी भोग विलास की इच्छा समाप्त नहीं होती है बल्कि नित्य नई इच्छाएं जागृत हो जाती हैं| जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है उसे शीघ्र ही भोग-वासना की तृष्णा का त्याग कर देना चाहिए| मैंने हज़ार वर्ष तक विषयों का भोग किया तथापि दिन प्रतिदिन भोगों की चाहत बढ़ती जा रही है| इसलिए अब मैं इनका त्याग कर ब्रह्म में चित्त लगाकर निर्द्वंद विचरण करूँगा| इस प्रकार महाराज ययाति ने अपनी पत्नी देवयानी को समझाकर पुरु को उसकी जवानी लौटा दिया तथा उससे अपना बुढ़ापा वापस ले लिया| तदोपरांत उन्होंने अपने पुत्र दुह्यु को दक्षिण-पूर्व की दिशा में तथा यदु को दक्षिण दिशा में व तुर्वसु को पश्चिम दिशा में और अनु को उत्तर दिशा में राजा बना दिया|पुरु को राज सिंहासन पर बिठाकर उसके सब बड़े भईयों को उसके अधीन कर स्वयँ वन को चले गए| वहां जाकर उन्होंने ऐसी आत्म आराधना की जिससे अल्प काल में ही परमात्मा से मिलकर मोक्षधाम को प्राप्त हुए| देवयानी भी सब राज नियमों से विरक्त होकर भगवान का भजन करते हुए परमात्मा में लीन हो गयी| महाराज ययाति के पांच पुत्र हुए जिसमे यदु और तुर्वसु महारानी देवयानी के गर्भ से तथा दुह्यु व अनु और पुरु शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्पन्न हुए

    १०. यदु महाराजा ( यदुवंश के संस्थापक इन्ही से यदुवंश चला भाटी ,जडेजा ,चुदासमा, जादों )
    यदुवंश के संस्थापक यदु महाराजा ययाति के पुत्र थे। उनका जन्म देवयानी के गर्भ से हुआ। यदु के वन्शज यदुवँशी कहलाए। महाराज ययाति के दो रानियाँ थी एक का नाम था देवयानी और दूसरी का शर्मिष्ठा । देवयानी के गर्भ से यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र तथा शर्मिष्टा के गर्भ से दुह्यु,अनु और पुरू नामक तीन पुत्र हुए।
    ययाति के पुत्रो से जो वंशज चले वे इस प्रकार है- १.यदु से यदुवँश २.तुर्वसु से यवन ३.दुह्यु से भोज ४.अनु से म्लेक्ष ५ पुरु से पौरववँश।
    यदु के नाना शुक्राचार्य ने उनके पिता ययाति को श्राप दे दिया था जिससे वे असमय भरी जवानी में वृद्ध हो गए।राजा अपने बुढ़ापे से बहुत दुखी था। यदि कोई उन्हें अपनी जवानी देकर उनका बुढ़ापा ले लेता तो वे पुनः जवान हो सकते थे।राजा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को जवानी देकर बुढ़ापा लेने को कहा। किन्तु यदु ने इंकार कर दिया।तब उन्होंने दुसरे पुत्र तुर्वसु को कहा तो उसने भी इंकार कर दिया। इसी प्रकार महाराज ययाति के तीसरे और चौथे पुत्र ने भी इंकार कर दिया। तब राजा ययाति ने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु से पुछा तो वह सहर्ष जवानी के बदले बुढ़ापा लेने को सहमत हो गया। पुरु की जवानी प्राप्त कर ययाति पुनः तरुण हो गए। तरुणावस्था मिल जाने से वे बहुत काल तक यथावत विषयों को भोग करते रहे। उस समय की परम्परा के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण पिता के सन्यास लेने के बाद सिंहासन का असली हकदार यदु था। किन्तु यदु द्वारा अपनी जवानी न दिये जाने के कारण महाराजा ययाति उससे रुष्ट हो गये थे।इसलिये यदु को राज्य नही दिया। वे अपने छोटे बेटे पुरू को बहुत चाहते थे और उसी को राज्य देना चाहते थे। राजा के सभासदो ने जयेष्ठ पुत्र के रहते इस कार्य का विरोध किया।किन्तु यदु ने अपने छोटे भाई का समर्थन किया और स्वयँ राज्य लेने से इन्कार कर दिया और । इस प्रकार ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को प्रतिष्ठान की मुख्य शाखा का शासक बनाया।अन्य पुत्रों को दूर-दराज के छोटे छोटे प्रदेश सौंप दिये।
    यदु को दक्षिण दिशा में चर्मणवती वर्तमान मथुरा का क्षेत्र व चम्बल का तटवर्ती प्रदेश मिला।वह अपने सब भाइयो मे श्रेष्ठ एवं तेजस्वी निकला। यदु का विवाह धौमवर्ण की पाँच कन्यायों के साथ हुआ था। श्रीमद भागवत महापुराण के अनुसार यदु के चार देवोपम पुत्र हुए जिनके नाम सहस्त्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु थे। इनमे से सहस्त्रजित और क्रोष्टा के वंशज पराक्रमी हुए तथा इस धरा पर ख्याति प्राप्त किया।
    उनमें से वृष्णि और अन्धक कुल के वंशज अन्य की अपेक्षा अधिक विख्यात हुए। वृष्णि के नाम पर वृष्णिवंश चला। इस वंश में लोक रक्षक भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया था जिससे यह वंश परम पवित्र हो गया और इस धरा पर सर्वाधिक विख्यात हुआ। श्रीकृष्ण की माता देवकी का जन्म अन्धक वंश में हुआ था।इस कारण अन्धक वंश ने भी बहुत ख्याति प्राप्त की। अन्धक के वंशज अन्धकवंशी यादव कहलाये।अन्धक के कुकुर, भजमन, शुचि और कम्बलबर्हि नामक चार लड़के थे। इनमें से कुकुर के वंशज बहुत प्रसिद्द हुए। कुकुर के पुत्र का नाम था वह्नि । वह्नि के विलोमा, विलोमा के कपोतरोमा और कपोतरोमा के अनु नामक पुत्र हुआ।अनु के पुत्र का नाम था अन्धक। अन्धक के पुत्र का नाम दुन्दुभि और दुन्दुभि के पुत्र का नाम था अरिद्योत। अरिद्योत के पुनर्वसु नाम का एक पुत्र हुआ। पुनर्वसु के दो संतानें थी- पहला आहुक नाम का पुत्र और दूसरा आहुकी नाम की कन्या। आहुक के देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्र हुए। देवक के देववान, उपदेव, सुदेव,देववर्धन नामकचार पुत्र तथा धृत, देवा, शांतिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी नामक चार कन्यायें थीं। आहुक के छोटे बेटे उग्रसेन के कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू,राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान नामक नौ पुत्र और कन्सा, कंसवती, कंका, शुरभु और राष्ट्र्पालिका नामक पाँच कन्यायें।
    यदुवँश एक परिचय
    महाराजा यदु एक चंद्रवंशी राजा थे। सोमवँश सिरोमणी सम्राट ययाति के पुत्र थे व यदु कुल के प्रथम सदस्य माने जाते हैं।उनके वंशज जो कि यादव के नाम से जाने जाते हैं यदुवंशी के नाम से भी जाने जाते हैं। भाटी ,जडेजा ,चुडासमा ,जादों और यादव इनकी मुख्या खापे जिनका विस्तार मथुरा से लेकर गजनी अफगानिस्तान से जैसलमेर तक राज्य किया | और भारत एवं निकटवर्ती देशों पाकिस्तान व अफगानिस्तान में काफी संख्या में पाये जाते हैं। उनके वंशजो में सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं पौराणिक ग्रन्थ महाभारत के महानायक भगवान श्री कृष्णा महाराज यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है। जो मनुष्य इसका श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जायगा। इस वंश में स्वयं परमपुज्य भगवान श्री विष्णु ने क्रष्णा के रुप मे मनुष्य अवतार लिया था।
    महाराज यदुकुल शिरोमणि की वँशावली पर चर्चा करते हैँ।
    यदु के चार पुत्र थे- 1.सहस्त्रजित 2.क्रोष्टा 3.नल और 4.रिपुं
    1.सहस्त्रजित से शतजित का जन्म हुआ। शतजित के तीन पुत्र थे- 1.महाहय 2.वेणुहय और 3.हैहय ईनही से एक अलग वँश हैहयवँश चला। हैहय के वंशज हैहयवंशी यादव क्षत्रिय कहलाए।
    हैहय के हजारों पुत्र थे। उनमे से केवल पाँच ही जीवित बचे थे बाकी सब युद्ध करते हुए परशुराम के हाथों मारे गए।बचे हुए पुत्रों के नाम थे- शूरसेन,वृषभ, मधु और ऊर्जित।
    हैहय का धर्म,धर्म का नेत्र,नेत्र का कुन्ति,कुन्ति का सोहंजि, सोहंजि का महिष्मान और महिष्मान का पुत्र भद्रसेन हुआ। भद्रसेन के बाद धनक और कीर्तीकिर्य और अर्जुन
    हैहयपति महाराज भद्रसेन के दो पुत्र थे- 1.दुर्मद और 2.धनक।
    धनक के चार पुत्र हुए- 1.कृतवीर्य, 2.कृताग्नि, 3.कृतवर्मा व 4.कृतौजा। कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। जिन्हे हैहयराज क्रतवीर्य अर्जुन के नाम से जाना जाता हैँ।वह सातों द्वीप का एकछत्र सम्राट था।उसने भगवान के अंशावतार श्री दत्तात्रेयजी से योगविद्या और अणिमा-लघिमा आदि बड़ी-बड़ी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं।इसमें सन्देह नहीं कि संसार का कोई भी सम्राट यज्ञ,दान,तपस्या,योग, शास्त्रज्ञान,पराक्रम और विजय आदि गुणों में कार्तवीर्य अर्जुन की बराबरी नहीं कर सकेगा।सहस्त्रबाहु अर्जुन पचासों हज़ार वर्ष तक छहों इन्द्रियों से अक्षय विषयों का भोग करता रहा। इस बीच में न तो उसके शरीर का बल ही क्षीण हुआ और न तो कभी उसने यही स्मरण किया कि मेरे धन का नाश हो जायेगा।उसके धन के नाश की तो बात ही क्या है।उसका ऐसा प्रभाव था कि उसके स्मरण से दूसरों का खोया हुआ धन भी मिल जाता था।उसके हज़ारों पुत्रों में से केवल पाँच ही जीवित रहे। शेष सब परशुराम की क्रोधाग्नि में भस्म हो गये।
    अर्जुन के बचे हुए पुत्रों के नाम थे- 1.जयध्वज 2.शूरसेन 3.वृषभ 4.मधु और 5.ऊर्जित।
    अर्जुन के पुत्र जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ। तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे 'तालजंघ' नामक क्षत्रिय कहलाये।महर्षि और्व की शक्ति से सुर्यवँशी राजा सगर ने उनका संहार कर डाला।उन सौ पुत्रों में सबसे बड़ा था वीतिहोत्र। वीतिहोत्र का पुत्र मधु हुआ। मधु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
    यदुनन्दन पुत्र 11. क्रोष्टु के पुत्र का नाम था १२. वृजिनवान। वृजिनवान का पुत्र 13.श्वाहि, श्वाहि का 14. रूशेकु,रूशेकु का 15. चित्ररथ और चित्ररथ के पुत्र का नाम था16. शशबिन्दु
    16.शाशिबंदु :-
    वह परम योगी महान भोगैश्वर्य सम्पन्न और अत्यन्त पराक्रमी था। वह चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती और युद्ध में अजेय था।परम यशस्वी शशबिन्दु के दस हज़ार पत्नियाँ थीं। उनमें से एक एक के लाख लाख सन्तान हुई थीं।इस प्रकार उसके सौ करोड़ एक अरब सन्तानें उत्पन्न हुईं। उनमें पृथुश्रवा आदि छ: पुत्र प्रधान थे। 17.पृथुश्रवा के पुत्र का नाम था 18. धर्म।धर्म का पुत्र 19.उशना हुआ।उसने सौ अश्वमेध यज्ञकिये थे।उशना का पुत्र हुआ २०. रूचक।रूचक के पाँच पुत्र हुए उनके नाम थे-1.पुरूजित,2.रूक्म,3.रूक्मेषु,4.पृथु और5.ज्यामघ।
    21.ज्यामघ :-
    ज्यामघ की पत्नी का नाम था शैब्या। ज्यामघ के बहुत दिनों तक कोई सन्तान हुई। परन्तु उसने अपनी पत्नी के भय से दूसरा विवाह नहीं किया। एक बार वह अपने शत्रु के घर से भोज्य नाम की कन्या हर लाया।जब शैब्या ने पति के रथ पर उस कन्या को देखा तब वह चिढ़कर अपने पति से बोली कपटी मेरी बैठने की जगह पर आज किसे बैठा कर लिये आ रहे हो ज्यामघ ने कहायह तो तुम्हारी पुत्रवधू है।शैब्या ने मुस्कुराकर अपने पति से कहा।मैं तो जन्म से ही बाँझ हूँ और मेरी कोई सौत भी नहीं है। फिर यह मेरी पुत्रवधू कैसे हो सकती है।ज्यामघ ने कहा रानी तुम को जो पुत्र होगा उसकी यह पत्नी बनेगी। राजा ज्यामघ के इस वचन का विश्वेदेव और पितरों ने अनुमोदन किया।फिर क्या था समय पर शैब्या को गर्भ रहा और उसने बड़ा ही सुन्दर बालक उत्पन्न किया। उसका नाम हुआ विदर्भराज।उसी ने शैब्या की साध्वी पुत्रवधू भोज्या से विवाह किया।
    22.विदर्भ :-विदर्भ के कश, क्रथ और रोमपाद नामक तीन पुत्र थे।
    विदर्भ के तीसरेवंशधर रोमपाद के पुत्र का नाम था बभ्रु।
    बभ्रु के कृति, कृति के उशिक और उशिक के चेदि नामक पुत्र हुआ।चेदि के नाम पर चेदिवंश का प्रादुर्भाव हुआ। इसी चेदिवंश में शिशुपाल आदि उत्पन्न हुए।
    विदर्भ के आगे क्रमशः उनके पुत्र 23.क्रथ 24.कुंती 25.द्रष्टि 26.निर्वर्ती 27.दशार्ह 28.व्योम 29.जीमूत 30.विकृति 31.भीमरथ 32.नवरथ33.दशरथ 34.शकुनी 35.क्रमभी36.देवरात 37.देवक्षत्र 38.मधुत्र39.कुरुवंश 40.अनु41.पुरुहोत्र 42.आयु
    सात्वत:-
    यह ऐक प्रतापी राजा हुए। उनके नाम पर यादवों को कई जगह सात्वतवंशी भी कहा गया है। सात्वत के सात पुत्र थे। उनके नाम थे -भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देवाव्रध , महाभोज और अन्धक। इनसे अलग अलग सात कुल चले। देवावृद्ध का पुत्र ब्रभु हुआ | उनसे उपदेश लेकर चौदह हजार पैसठं मनुष्य परमपद को प्राप्त हुयें | अन्धक के चार पुत्र हुए कुकुर ,भजमान,शुची ,कम्बलबरही | महाभोज बड़ा धर्मात्मा हुआ उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए |
    यदुवँशी क्षत्रियो के व्रष्णि,अन्धक व भोज ओर कुकुर यादव संघ
    मधु राजा के सौ पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र एक यादवराज था। इसी के कुल में श्री कृष्ण पैदा हुए थे और इसी कारण वार्ष्णेय कहलाए। इनका वंश वृष्णि वंशीय यादव कहलाता था। ये लोग द्वारिका में निवास करते थे। प्रभास क्षेत्र में यादवों के गृह कलह में यह वंश भी समाप्त हो गया। वृष्णि गणराज्य शूरसेन प्रदेश में स्थित था।वृष्णियो का तथा अंधकों का प्राचीन साहित्य में साथ साथ उल्लेख है।पाणिनि में वृष्णियों तथा अंधको का उल्लेख हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कुकुर व वृष्णियों के संघ-राज्य का वर्णन है। महाभारत में अंधक वृष्णियों का कृष्ण के संबंध में वर्णन है। इसी प्रसंग में कृष्ण को संघ मुख्य भी कहा गया है जिससे सूचित होता है कि वृष्णि तथा अंधक गण जातियों के राज्य थे।
    वृष्णि राजज्ञागणस्य भुभरस्य।यह सिक्का वृष्णि-गणराज्य द्वारा प्रचलित किया गया था और इसकी तिथि प्रथम या द्वितीय शती ई.पू. है। अंधक एवं वृष्णि संघ यदुवंशियों के राजा भीम सात्वत के पुत्रों के नाम पर बने थे।कृष्ण वृष्णि थे एवं उग्रसेन और कंस अंधक थे ।
    मथुरा में तीर्थंकर नेमिनाथ भी अंधक कहे गये हैं।कुछ ग्रंथों में कृष्ण को अंधक भी कहा गया है। मथुरा अंधक संघ की राजधानी थी और द्वारिका वृष्णियो की।
    सुर्यवँशी श्री राम के पश्चात जब अयोध्या की गद्दी पर कुश थे और लव युवराज थे तब मथुरा में भीम के पुत्र अंधक राज्य करते थे । उनके बाद अंधक वंशियों का मथुरा पर अधिकार रहा था जो उग्रसेन और उनके पुत्र कंस तक कायम रहा था।
    राजा व्रष्णी
    भीम के दूसरे पुत्र का नाम वृष्णि था।उनके वंश में उत्पन्न शूर ने शौरपुर (वर्तमान बटेश्वर) बसा कर अपना पृथक् राज्य स्थापित किया था।
    राजा सूरसेन
     वासुदेव इनके ज्येष्ठ राजकुमार और राजकुमारी प्रथा इनकी पुत्री थी |
    क्यों की प्रथा राजा कुन्तिभोज की गोद आई पुत्री थी इसलिए बाद में इन्हें कुंती नाम से जाना गया |कुंती का विवाह राजा पांडू के साथ हुआ था ' युधिस्ठर अर्जुन और भीम इस रानी से उनके पुत्र थे राजा दूसरी रानी माद्री  मद्रदेश के राजा शल्व की बहन थी , यह नकुल और सहदेव जुड़वाँ भाइयों की माता थी | राजा सूरसेन के दुसरे पुत्र देवभाग के पुत्र उद्धव युवराज वासुदेव के भतीजे थे
    राजा वासुदेव
    राजा पांडू की रानी कुंती इनकी बहन थी | इनके दो रानिया थी रानी रोहिणी बलराम की और रानी देवकी श्री कृष्णा की माता थी | बलराम और श्री कृष्णा सगे भाई लेकिन माताए दो थीं | रानी रोहिणी हस्तिनापुर के पुरुवंशी राजा कुरु के वंशज राजा प्रदीप और उनकी रानी सुनन्दा की पुत्री थी |बलराम शेषनाग के और श्री कृष्णा विष्णु भगवान के अवतार थे |

    श्री कृष्ण
    विदर्भ प्रदेश में कुनणपुर के राजा भीष्मक की राजकुमारी रुकमनी श्री कृष्णा की प्रधान रानी और उनके प्रधुम्न राजकुमार की माता थी | रानी रुकमनी लक्ष्मी का अवतार थी राजकुमारी रुकमनी के पिता भीष्मक ने अपनी राजकुमारी द्वारा अपने भावी वर का चुनाव करने के लिए एक स्वय्वर का आयोजन किया ,जिसमे राजकुमारी रुकमनी के साथ विवाह के इच्छुक सभी योग्य सम्राटों ,राजाओं v अन्य कीर्तिवान प्रमुखों को स्वयंवर में आमंत्रित किया | श्री कृष्ण को भी इसी स्वयंवर में आमंत्रित किया गया था | किन्तु पद के अनुरूप राज्योचित शिष्टाचार से उनका स्वागत नही किये जाने के विरोध में उन्होंने अपना डेरा क्रम्केथ उद्यान में रखा | राजा भीष्मक द्वारा श्री कृष्ण जी की उदासीन अगवानी से देवराज इंद्र भी नाराज थे | उन्होंने उन्हे सांत्वना देने के लिए स्वर्ग से स्वयं का नृपयोग्य तामझाम क्रमकेथ उद्धान उद्धान भेजा जिसमे मेघाडम्बर छत भी था |जो छत्र आज भी जेसलमेर भाटियों के ठिकाने में अपनी सोभा आज भी बढा रहा हे | यह सब जानकर राजा भीष्मक को अपनी भूल का ध्यान आया | संकोच से भरे राजा ने उसी उधान में ही श्री कृष्ण के लिए सम्राटों के पद के अनुरूप भव्य समारोह का आयोजन किया | इस दरबार में उन्हें नजरे भेंट की गयी | सभी आगंतुकों ने स्वयं उपस्थति होकर राजकीय सम्मान से उन्हें उपहार भेंट दिए और उनके प्रति श्रधा दर्शायी |किन्तु मगध के राजा जरासंघ ने वहां समारोह में उपस्थित रहते हुए भी कृष्ण जी को अहंकार में नजर भेंट नही की क्यूँ की श्री कृष्णा जी ने उनके जंवाई राजा कंश का वध किया था |
    वैदिक पुराण साहित्यो में उत्तरी पांचाल के पौरव राजा दिवोदास और उनके वंशज सुदास की विजय गाथाओं का उल्लेख मिलता है।सुदास ने हस्तिनापुर के पौरव राजा संवरण को उनके नौ साथी राजाओं की विशाल सेना सहित पराजित किया था।दस राजाओं के उस भीषण संघर्ष को प्राचीन वाग्मय में दाशराज्ञ युद्ध कहा गया है। वीरवर सुदास से पराजित होने वाले उन नौ राजाओं में एक यादव नरेश भी था।
    यदुवँशियो के अंधक वृष्णि संघकी कार्यप्रणाली गणतंत्रात्मक थी और बहुत समय तक वह अच्छे ढंग से चलती रही। प्राचीन साहित्यिक उल्लेखों से पता चलता है कि अंधक वृष्णि संघ काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था।इसका मुख्य कारण यही था कि संघ के द्वारा गणराज्य के सिद्धांतों का सम्यक् रूप से पालन होता था तथा चुने हुए नेताओं पर विश्वास किया जाता था।ऐसा प्रतीत होता है कि कालांतर में अंधकों और वृष्णियों की अलग अलग मान्यताएँ हो गई और उनमें कई दल हो गये।प्रत्येक दल अब अपना राजनीतिक प्रमुख स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील रहने लगा।इनकी सभाओं में सदस्यों को जी भर कर आवश्यक विवाद करने की स्वतन्त्रता थी।एक दल दूसरे की आलोचना भी करता था।जिस प्रकार आजकल अच्छे से अच्छे सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी बुराइयाँ होती है।उसी प्रकार उस समय भी ऐसे दलगत आक्षेप हुआ करते थे।महाभारत के शांति पर्व के 82 वें अध्याय में एक ऐसे वाद-विवाद का वर्णन है जो तत्कालीन प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली का अच्छा चित्र उपस्थित करता है। यह वर्णन श्रीकृष्ण और नारद के बीच संवाद के रूप में दिया गया हैँ।
    श्री कृष्णदत्त वाजपेयी का अनुमान है कि यादव राजा भीम सात्वत का पुत्र अंधक रहा होगा जो सुदास के समय यादवों की मुख्य शाखा का अधिपती और शूरसेन जनपद के तत्कालीन गणराज्य का अध्यक्ष था।वह संभवत: अपने पिता भीम के समान वीर नहीं था।अंधक के वंश में कुकुर हुआ था।कुकुर की कई पीढ़ी बाद आहुक हुआ जिसके दो पुत्र उग्रसेन और देवक हुए थे।उग्रसेन का पुत्र कंस था और देवक की पुत्री देवकीथी।उग्रसेन, देवक और कंस अपने पूर्वज अंधक और कुकुर के नाम पर अंधक वंशीय अथवा कुकुर वंशीय कहलाते थे।
    अंधक के भाई वृष्णि के दो पुत्र हुए जिनके नाम देवमीढूष और युधाजित थे।देवमीढूष के पुत्र श्र्वफल्क और उनके पुत्र अक्रूर थे।वृष्णि के वंशज वाष्णि वंशीय अथवा वार्ष्णेय कहलाते थे।
    अंधक और वृष्णि वंशिय द्वारा शासित शूरसेन प्रदेशांतर्गत मथुरा और शौरिपुर के दोनों राज्य गणराज्य थे।उनका शासन वंश परम्परागत न होकर समय-समय पर जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा होता था।वे प्रतिनिधि अपने अपने गणों के मुखिया होते थे और राजा कहलाते थे।
    महाभारत युद्ध से पूर्व उन दोनों राज्यों का संघ था जो कि अंधक-वृष्णि संघ' कहलाता था।उस संघ में अंधकों के मुखिया आहुक पुत्र उग्रसेन थे और वृष्णियों के शूरसेन पुत्र वसुदेव थे।उस संघीय गण राज्य का राष्ट्रपति उग्रसेन था।इस संघ राज्य के केंद्र मन्त्रियों में एक उद्धव भी थे।उग्रसेन की भतीजी देवकी का विवाह वसुदेव के साथ हुआ था जिनके पुत्र भगवान कृष्ण थे।उग्रसेन के पुत्र कंस का विवाह उस काल के सर्वाधिक शक्तिशाली मगध साम्राज्य के अधिपति जरासंध की दो पुत्रियों के साथ हुआ था।वसुदेव की बहिन कुन्ती का विवाह कुरु प्रदेश के प्रतापी महाराजा पांडु के साथ हुआ था जिनके पुत्र सुप्रसिद्ध पांडव थे। वसुदेव की दूसरी बहिन श्रुतश्रवा हैहयवंशी चेदिराज दमघोष को ब्याही गयी थी जिसका पुत्र शिशुपाल था।इस प्रकार शूरसेन प्रदेश के यदुवँशियो का पारिवारिक संबंध भारतवर्ष के कई विख्यात राज्यों के अधिपतियों के साथ था।उग्रसेन का पुत्र कंस बड़ा शूरवीर और महत्त्वाकांक्षी युवक था । फिर उन्हें अपने श्वसुर जरासंध के अपार सैन्य बल का भी अभिमान था।वह गणतंत्र की अपेक्षा राजतंत्र में विश्वास रखता था। उन्होंने अपने साथियों के साथ संघ राज्य के विरुद्ध कर उपद्रव करना आरम्भ किया।अपनी वीरता और अपने श्वसुर की सहायता से उन्होंने अपने पिता उग्रसेन और बहनोई वसुदेव को शासनाधिकार से वंचित कर उन्हें कारागृह में बन्द कर दिया और आप स्वयँ अंधक-वृष्णि संघ का स्वेच्छाचारी राजा बन गया था।वह यदुवँशियो से घृणा करता था और अपने को यदुवँशी मानने में लज्जित होता था।उसने मदांध होकर प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार किये थे।अंत में श्री कृष्ण द्वारा उनका अंत हुआ था।
    संदर्भ ग्रन्थ
    1.गजनी टू जेसलमेर हरी सिंह भाटी
    २.मुह्नोत नेन्शी री ख्यात ओझा जी
    3.भाटी वंश  का गोरवमई इतिहास डॉ हुकुम सिंह भाटी
    ४.राजपूतो की वंशवली एवम महागाथा त्रिलोक सिंह ढाकरे



Published by- "Yaduvanshi Kunwar Abhay  Pratap Singh Jadon"



: जैसलमेर के तीन शाके और जौहर होनहार के खेल


कभी इस मार्ग पर घोड़े दौड़ते थे , कभी ऊंट दौड़ते थे , पर आज मोटरे दौड़ रही है | कभी इस मार्ग पर फौजे आती थी , कभी नगारे बजते थे , और आज सिर्फ यात्री आ रहे है और यात्री जा रहे है | कभी इस मार्ग पर जिन्दगी के कारवां गुजरते थे , कभी मौत के हरकारे दौड़ते थे पर आज न तो मौत दौड़ रही है न जिन्दगी , केवल सुनसान बैठा हुआ है | अपनी ठुड्डी पर मुट्ठी का अग्र भाग दिए सोच रहा है - ' होनहार ने क्या कर डाला !'
खुरासान का बादशाह फरिद्शाह दो बार करारी पराजय खा चूका था , इसीलिए महाराजा गज ने गजनी नगर और उसका किला बसाया | कुचला हुआ सांप क्रोधित होकर प्रत्याक्रमण कर सकता है और हुआ भी वही | इस बार रूम का ममरेज शाह भी साथ था | दो बार हार कर गया , किन्तु तीसरी बार शालिवाहन को अपने पिता की रणभूमि ही छोड़कर पंजाब आना पड़ा | आज गाथाओं से सरोबार यह बालू रेत के टीबे और व्यथाओं को समेटे यह पथरीले मगरे अफगानिस्तान की हिम-मंडित और फलों से लदी हुई पहाड़ियों और घाटियों को याद कर सोचते है - ' होनहार ने क्या कर डाला !'
पंजाब में शालिवाहन ने स्यालकोट बसाया | गजनी तो वापस भी आई , परन्तु अंत में स्यालकोट को भी ले गयी | अपने दादा के वतन को छोड़कर महाराजा भाटी ने भटनेर का किला बसाया | मेरे आस पास खड़े ये सूखे खेजडे , फोग की पसरी हुई झाड़ियाँ और झुलसे हुए आकडे पंजाब के हरे- भरे और लहलहाते मैदानों की याद में वेदना के सागर सुखा रहे है और इधर मेरी स्मृति में भी कांटे चुभ रहे है - ' होनहार ने क्या कर डाला !'
लेकिन होनहार ने क्या किया है ? कुछ नहीं ! उसने तो सिर्फ नाम बदलें है | भटनेर वहीँ है , नाम बदल गया है - हनुमानगढ़ | भाटी के प्रपोत्र महाराजा केहर ने सिंध में केहरगढ़ बसाया था , आज उस सिंध का सिर्फ नाम बदल गया है - पकिस्तान | होनहार तो सिर्फ नाम बदला करता है | कभी प्रभात को संध्या कर देता है और कभी संध्या को प्रभात | कभी किसी को सम्राट कह देता है , फिर पलट कर उसी को फकीर कह देता है | होनहार वही है , उसकी कलम भी वही है , सिर्फ कागज बदल रहे है , रंग बदल रहे है , नाम बदल रहे है , पात्र और स्थान बदल रहे है पर उनके साथ जमाने भी बदल रहे है |
केहर के पुत्र महाराजा तणुराज का बनाया हुआ तनोटगढ़ खडाल में अभी तक बना हुआ है , पर शासकों के नाम बदल गए | तणु का पुत्र विजयराज चुंडाला था , जिसने भटिंडा के वरिहाहों के दांत खट्टे कर दिए पर होनहार पलटा और उन्ही वरिहाहों ने घात कर विजयराज को मार डाला और उसके पुत्र देवराज पर आफत के पहाड़ चुन दिए | होनहार ने नाम और ज़माने पलट दिए और इतिहासकार सोचता है - ' होनहार ने क्या कर डाला ?'
होनहार से जब पहली बार मैंने बदला लेने की ठानी तब सर्वप्रथम देवराज से उसकी मुटभेड हुई | होनहार ने उसके पिता विजयराज को वरिहाहों से कपटपूर्वक मरवा डाला , तो इसने वरिहाहों का समूल नाश का होनहार के मुंह पर पहला थप्पड़ मारा | होनहार ने उससे तनोट का किला छुड़ाया , तो इसने देरावर बसाया , बदले में भटनेर और भटिंडा हाथ किया और ब्याज में लुद्र्वा को भी छिनकर होनहार के मुंह पर दूसरा थप्पड़ मारा | होनहार ने इसे अपने पैत्रिक राज्य से भ्रष्ट कर महाराजा से दर-दर का भिखारी बना दिया , पर इसने पुरुषार्थ और बल-विक्रम से पुन: महाराजा ही नहीं , महारावल बनकर होनहार के मुंह पट तीसरा थप्पड़ कस दिया |
पुरोहित लांप के पुत्र रतना को इसके साथ भोजन करने के कारण जाति बहिष्कृत किया गया , किन्तु सन्यासी बने सिंहस्थली के इसी पुरोहित को सोरठ से बुलाकर इसने इसकी नई जाति रत्नू चारण बनाकर होनहार के मुंह पर चोथा थप्पड़ मार दिया | मेरे हाथों होनहार ने इतनी चुभती हुई और बेशुमार थप्पड खाई कि उसका मुंह पीड़ा और शर्म से लाल हो गया था | मेरी तो फिर भी शिकायतें रही पर देवराज ने कभी शिकायत नहीं की , कि होनहार ने क्या कर डाला ?
देवराज की चौथी पीढ़ी पर भोजदेव ने शहाबुद्दीन गोरी की फ़ौज का सामना किया उर होनहार ने लुद्र्वा की रौनक सदा के लिए छीन ली | पर जैसल ने भोजदेव के उत्तराधिकारी के रूप में मुझ जैसलमेर दुर्ग को बसाया | संवत १२१२ से आज तक लगभग ८०० वर्षों में मैं इसी स्थान पर खड़ा हुआ , रास्तों को बदलते हुए , धरती को बदलते हुए , इंसान और इतिहास को बदलते हुए देख रहा हूँ | कभी इस जगह घोड़ों और ऊँटो को दौड़ते देखा था आज उन्ही राहों पर मोटरों को दौड़ते देख रहा हूँ | और कभी नगारें बजाती फौजों को देखा था और आज सिर्फ यात्रियों को आते जाते देख रहा हूँ | कभी जिन्दगी के कारवां और मौत के काफिले देखे थे और आज तकदीरों की उथल-पुथल को देख रहा हूँ , जीवित कौम के अंदाजे और नियति की अदाएं देख रहा हूँ और सोच रहा हूँ - ' होनहार ने क्या कर डाला ? '
एक दिन बड़ी अवेर होनहार ने मेरा दरवाजा खटखटाया | दिन ढल चूका था और संध्या समीप थी | जिसक के पौत्र और राव केल्हण के पुत्र चाचकदेव ने देखा बाल सफ़ेद आ रहे है , जरा ने अपना सन्देश भेज दिया है , अब मृत्यु का मुकाबला खाट पर किया जाय अथवा होनहार को दो हाथ दिखाकर किया जाय | जब चाचकदेव ने मेरी और प्रश्नसूचक दृष्टि से देखा , तब मैंने भक्तिभाव से उत्तर दिया था - ' नहीं , मेरे मालिक ! होनहार के समक्ष झुको नहीं , उससे रणभूमि में लोहा लो ताकि आने वाली पीढ़ी को मैं कह सकूँ -कि उनके पूर्वज खाट पर पड़े मौत का इन्तजार नहीं किया करते थे ,
किन्तु मौत की खाट पर बैठ कर उसका गला दबोच लेते थे |' और मेरा मालिक मुल्तान के लंगा को रणदान देने गया ' हम ५०० सवार लेकर सिर्फ होनहार से लड़ने आ रहे है | कृपा पूर्वक हमारा रणदान स्वीकार करो | ' ऐसे बांके दानी न लंगा ने कभी देखे और न कभी सुने | मुल्तान का बादशाह तिगुनी फ़ौज लेकर आया उसने देखा - चाचकदेव ने मुट्ठी भर सेना से वास्तव में होनहार के छक्के छुड़ा दिए | रणक्षेत्र में मुल्तान का बादशाह सो गया , चाचकदेव और दोनों सेना के सिपाही सो गए | मौत के समय मेरे मालिक खाट पर नहीं , मौत का सिरहाना देकर कर्तव्य -क्षेत्र में सोया करते थे , फिर होनहार को क्या दोष दूँ कि उसने क्या कर डाला ?
चाचकदेव के पौत्र महारावल जैतसी का राजतिलक संवत १३३२ में हुआ | एक सौ बीस वर्ष का मैं भी जवान हो गया था | मैंने भी सोचा -यौवन की इन उछलती हुई घड़ियों में मौत की ठिठोली कर मैं भी दो एक कहकहे लगा दूँ | महारावल के राजकुमार मूलराज और रतन सिंह को कहा - ' मेरी सगाई करो |' वे नारियल लेकर दूर-दूर तक फिर आये | भक्खर कोट से दिल्ली जाने वाले अल्लाउद्दीन के भरे खजाने लुट लाये | अन्तोत्गात्वा संवत १३६१ में बादशाह अल्लाउद्दीन की और से कमालदीन टीका लेकर आया | बारह वर्ष तक वे मुझे घेरे बैठे रहे और अंत में हारकर वापस जा रहे थे , कि मैंने मूलराज व रतन सिंह से कहा - ' ये तो जा रहे है , फिर मैं तो कुंवारा ही रहूँगा |' तब संवत १३७३ में दरवाजे खोले गए |
मेहमान और मेजबान खूब जी भरकर मिले | इधर तलवारों से तलवारें मिल रही थी , भालों से भाले मिल रहे थे , तीरों से तीर और घोड़ों से घोड़े मिल रहे थे | मिल-मिल कर लौट जाते थे, मेरे चरणों पर | मेरे भाल पर उस दिन अनगिनत टीके लगाये गए | कुमकुम इतना बिखर गया कि उससे धरती और आकाश लाल हो गए , मेरी खुशकिस्मती और बदनसीबी भी लाल हो गयी अंत में वह बहने लगी | निश्चय ही कालिका का खप्पर फूट गया था या फिर भर कर छलछला गया था | होनहार घबडा उठा - बंद करो ये उत्सव | लेकिन मैंने भी होनहार को दंग करने की ठानी थी |
बांह पकड़कर मैं उसको अंत:पुर के भीतर ले आया और उस प्रज्वलित अग्नि को दिखाया , जिसमे रनिवास खुद रहा था | विधाता का दिया हुआ , बुद्धि को बेहोश करने वाला सोंदर्य , कुल-परम्परा का दिया हुआ मस्तक को गर्वोन्नत करने वाला समस्त शील और किस्मत का उदारता से लुटाया हुआ सुहाग भी धधकती हुई अग्नि के भूखे पेट में समा रहा था |
मैंने होनहार से कहा - ' जरा देख ! हिमालय में हड्डियाँ गलाने , काशी में करवट लेने और असंख्य वर्षों तक सृष्टि दहलाने वाली तपश्चर्या के बाद बड़ी कठिनाई से प्राप्त होने वाले राज्य श्री के वैभव -सुख- सुहाग और संपत्ति को मेरे मालिक कितनी बेपरवाही से लुटा रे है |' होनहार क्या देखता ? उसने तो आँखे बंद करली थी और उसकी बंद आँखों से दर्द भरे आंसू टपक रहे थे | सिर धुनते उसने बस इतना ही कहा - ' हृदयहीन ! यह कैसी तेरी सगाई ? यह कैसा उत्सव ? उफ़ ! तुमने यह क्या कर डाला !'
जब सभी मेजबान चले गए , तब चंद मेहमान शेष रह गए और वे भी अंत में तंग आकर ताला लगाकर चले गए | सुनसान मेरा साथी बना | उसने भी एक दिन विदा ली और दुदा और तिलोकसीं आये | सिंहासन हाथ लगाते ही मैंने चेतावनी दी - ' सावधान ! मेरे विवाह का वायदा करो, तो इस सिंहासन पर बैठ सकते हो |' उन्होंने कहा -स्वीकार है | दर्पण ने एक दिन दूदा को कहा - अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो उसे पूरी करने के तुम्हारे दिन ढल रहे है - बालों में एक सफ़ेद बाल आ गया है | ' मेरे मालिक मेरी शादी की तैयारियों में जुट गए | कांगडे वालों की घोड़ियाँ ले आये | लाहोर के पास से बाहेली गूजर की भैंसे और सोने की मथानी ले आये | बादशाह के घोड़ों की सौगात ले आये | आखिर फिरोजशाह तुगलक ने लग्न-पत्री स्वीकार की | फ़ौज बाहर पड़ी रही ,आखिर धेर्य ने मेरी मदद की और संवत १४२८ की विजया दशमी का महूर्त निकल आया |
उस दिन तेल चढ़ने का मुहूर्त था | अग्नि प्रज्वलित की गई और रनिवास फिर उसी आग में चला गया | दुसरे दिन सुबह एकादशी को मैं चंवरी चढ़ने वाला था | तैयारियां पूरी हो चुकी थी | बारातियों ने केसरिया वस्त्र धारण किये | सब ने कसुम्बा पिया , गले लगे और मेरी एतिहासिक बारात के अनमोल बाराती नीचे उत्तर पड़े | शहनाईयां चीख पड़ी , और मारू सिसकने लगे | जीवन के सागर में ज्वार आ रहा था - लहरें -यौवन की लहरें , उमंग , आनन्द और जीवन की लहरें मौज में आई हुई थी |
धरती से उछलकर कभी आकाश के गले में बान्हे डाल रही थी और कभी आकाश से उतर कर धरती को चूम रही थी | घोड़ों की टापों से उड़ रही झीनी-झीनी खेह में पवन गालों में हाथ दिए प्रेम के मधुर-मधुर गीत गा रहा था | मुझ पर चंवर ढुलाई गई , मेरी पीठी की गई , वस्त्रों से सुसज्जित किया गया | उस दिन मैं फूला नहीं समां रहा था | होनहार तो ईर्ष्या से जलभुन गया |
आखिर चंवरी चढ़ी , भांवरे भी खाई | थोड़ी देर के बाद देखा -धूमधाम समाप्त हो गई , बाराती और बारात भी गई , मांढ भी सुनी पड़ी है | न उत्सव करने वाले रहे , न उत्सव देखने वाले रहे | परवाने जल चुके थे , शमाएं बुझ चुकी थी, मनुहारें बंद हो गयी और महफ़िल उठ गई | सुहागरात की सतरंगी शय्या पर दुल्हन भी नहीं , केवल उसका खींचतान से फटा हुआ दामन पड़ा था | मुझे तो मालुम ही नहीं हुआ , कि मैंने मौत से शादी की थी या जिन्दगी से | उस फटे हुए दामन से तो मेरा कफ़न भी नहीं बन सकता था | भयंकर सुनसान को देखकर मुझे होनहार के खेल का सही अर्थ मालुम हुआ और मैंने चीख उठा - ' निर्दयी होनहार ! तुमने यह क्या कर डाला ?'
पर होनहार क्या जबाब देता ? उसने आज तक मेरे किसी सवाल का उत्तर नहीं दिया है | उत्तर तो होनहार की शरारत का मैंने दिया था | महारावल लूणकरण के समय होनहार ने छल करना चाहा था | मैंने अपने मालिक को कहा - ' विवाह तो हो गया पर मेरा गौना कब होगा ? '
लूणकरण ने कहा था - ' क्यों अधीर होते हो , अवसर आने पर यह काम मैं कभी भी करवा दूंगा |' वह अवसर तब आया , जब होनहार ने कंधार के अमीर , अमीरअली खां के हाथों संवत १६०७ में डोलियाँ भेजी , कि यह अंत:पुर में मिलना चाहती है | पर मैंने प्रथम द्वार पर ही पहचान लिया , कि होनहार मुझसे शरारत करना चाहता है | उस बेचारे से समझने में भूल हो गयी , कि मैंने मौत से कितनी बार शरारतें की है | इस बार भी वही केसरिया बाना, वही कसूम्बा , वही राग , वही रंग | महारावल लूणकरण अपने चार भाईयों और तीन पुत्रों सहित मेरे गौने के लिए परलोक चले गए और वहां से मेरे लिए दुल्हन भेज दी |
मैंने उसे अंत:पुर में भेज दिया और प्रथम मिलन के मादक क्षणों की उत्सुकता पूर्वक प्रतीक्षा करने लगा | द्वारपाल ने देखा चिता सजाने और आग लगाने जितना समय ही नहीं रहा , तब समस्त अंत:पुर को तलवार के घाट पर धरा स्नान करवा दिया गया | और मेरी दुल्हिन भी प्रेम की दुनिया बसाकर उसी में विरह की आग लगाकर चली गयी | तुम इसे आधा शाका ही कहोगे , पर मेरे लिए पुरे से अधिक था | मेरा घर तो इसी शाके में बन कर उजड़ गया | अब भी खड़ा हुआ मैं संसार में इस बात का गवाही हूँ कि जैसलमेर में ढाई नहीं तीन शाके हुए |
चितौड़ में तीन शाके हुए , यह कहकर मुझे तुम उसकी तुलना में छोटा भले बता लो | मुझे चितौड़ से ईर्ष्या बिलकुल नहीं है , पर होनहार को कभी मुझसे ऊँचा नहीं बता देना | मुझे अपनी आन और मान प्रिय है और इसीलिए रावल लूणकरण की पुत्री उमादे जीवन भर अपने पति मालदेव का परित्याग कर संवत १६१९ की कार्तिक सुदी १२ को उसी पति के पीछे सती हुई | मुझे छोटा बताकर भी तुम मेरे खानदानी रक्त को छोटा मत बता देना | मैंने अपनी खानदानी आन के लिए होनहार का सदैव पीछा किया | वह जब कभी मुझे दिखाई दिया , मैंने खदेड़ कर उसे भगा दिया और उसके पदचिन्हों पर पुरुषार्थ का पानी छिड़क कर तलवारों की छांह में इतिहास और संस्कृति के पौधे लगाए | मेरी सीमा में मैंने होनहार को कभी सांस नहीं लेने दी |
आखिर तंग आकर वह भाग खड़ा हुआ और सुदूर पश्चिम सीमा पर बलोचों से मिल गया | जब बलोचों ने होनहार की शह पाकर उपद्रव खड़े किये , तब मैंने फिर उसका पीछा किया | रोहिड़ी के पास संवत १७५८ में उसके और महारावल अमर सिंह के दो दो हाथ हुए | धार से धार और अणि से अणि जब बजने लगी , तो पृथ्वी त्राहि -त्राहि करती हुई मेरे चरणों में गिर पड़ी और आकाश कांपते हुए सिसकियाँ भरकर कहने लगा - आखिर तुम क्यों होनहार के पीछे पड़े हो ?
इस मनुहार पर मैं लौट पड़ा | लौटते समय आषाढ़ सुदी अष्टमी को उसी युद्ध-क्षेत्र से कुछ दूर पर मेरी कुल-ललनाओं को मैंने सती होते देखा | अब कोई क्या कहेगा कि मैंने यह क्या कर डाला और क्या नहीं कर डाला |
उस दिन के बाद निश्चिन्त होकर ढाई सौ वर्ष तक मैंने खूब भोग भोगे |
उस दिन के बाद निश्चिन्त होकर ढाई सौ वर्ष तक मैंने खूब भोग भोगे | अवर्णीनीय एश्वर्य का उपभोग किया | रंगीन और हसीन महफ़िलों में डूब गया , पर मुझे क्या मालूम था , कि भोग और एश्वर्य के उन मादक प्यालों में होनहार ने ऐसा जहर घोल दिया , कि जिससे क्षण-क्षण मृत्यु समीप आने लगी | अज मैं स्पष्टतया देख रहा हूँ - मेरे थिरकते यौवन पर मनहूस बुढ़ापा छा गया | मेरे क्रोध के दांत टूट गए , मेरी बहादुरी के बाल सफ़ेद हो गए , मेरी उमंग में झुर्रियां पद गयी और मेरे पुरुषार्थ के घुटनों में संक्रामक दर्द शुरू हो गया | मेरे बारह -बारह वर्ष तक के घेरे लगाये गए, पर जब मेरा जीवित मौसर (मृत्युभोज) कर दिया गया ,उस दिन बारह दिन क्या बारह घंटे ही किसी ने शोक नहीं किया |
मेरी अर्थी बनाकर मुझे शमशान भी नहीं पहुँचाया गया और मेरे विजेताओं ने मेरी ही छाती पर दिवालियाँ मना ली | अब लोग मुझे देखने आते है - मैं भारत सरकार के दर्शनीय स्मारकों में हूँ , होनहार ने जीते जी मेरा स्मारक बना दिया | अब मैं जी क्या रहा हूँ , जीने की परिभाषा बदल रहा हूँ | दिल में इतने घाव और स्मृति में इतने फफोले पड़ गए है कि जीवन की परिभाषा समझा भी नहीं सकता |
दर्शक ! मेरी जिन्दगी कितनी रंगीन और खुबसूरत थी , पर मेरी मौत कितनी कमीनी और मनहूस हो गई ? काश ! मैं यह समझ पता , कि होनहार ने क्या डाला ?
होनहार ने मेरे साथ बहुत दगा किया है | उसने मेरी पीठ में छुरी भोंक दी है | मेरी जर्जरावस्था में अब मेरे तीन शत्रु हो गए है - होनहार , जरा और मृत्यु | पर मैं मांचे (खाट) की मौत कैसे मरुँ ? क्या चाचकदेव की संतान ने परिवार नियोजन करा लिया है ? क्या अब दिल्ली और मुल्तान में कोई बादशाह नहीं रहा ? क्या अब सामन्तो की कीमत बीस -बीस तीस-तीस हजार रूपये हो गई है ? क्या अब देवराज, चाचक देव , मूलराज या तिलोकसी कोई भी लौटकर नहीं आएगा ? कोई हर्ज नहीं , न आये ! क्या कह रहे हो - तुम मेरी सहायता करोगे ? हं हं ! तुम्हारे जीते जी मेरी कितनी बुरी हालत हो गई है ; तुम्हारे जीते जी लोग तुम्हारी धरती ले गए , इतिहास और संस्कृति ले गए और तुसे उफ़ कहते नहीं बन पड़ा |
तुम्हारे शत्रुओं ने तुम्हारी छाती पर बैठकर तुम्हारी कुल परम्परा का अपमान किया | और तो और , तुम उस शत्रु के टुकड़ों पर दम हिलाकर तलुवे चाटने लगे | काश ! मुझे फुसलाने के प्रयासों से पहले मेरी जिन्दगी की रंगीनियों को देखते ; मेरी जवानी के इठलाते हुए दिन देखते | मेरी रक्षा और इज्जत के उन हरकारों को देखते | अब तो कारवां गुजर गया , उसकी खेह भी नहीं रही , कि जिसे तुम्हे बता कर प्रमाण ही दे देता कि मैं तुम जैसा नपुंसक नहीं , उस होनहार वंश परम्परा की प्रतीक्षा कर रहा हूँ , जो होनहार के छक्के छुड़ा दे | वह देखो !
मैं उस कारवां की प्रतीक्षा कर रहा हूँ , जो दूर झुरमुट के पीछे आता हुआ दिखाई दे रहा है | झीनी झीनी खेह में , गिरती उठती परछाईयों में , कभी पहाड़ों और कभी बादलों की ओट में , कष्टों से खेलता , जंगलों की ख़ाक छानता हुआ बढ़ा आ रहा है | वर्षों से मैं उसके स्वागत के लिए कुमकुम का थाल लिए खड़ा हूँ | न जाने कब आएगा ? न उसकी गति तीव्र है ; न धीमी | न उसमे उद्वेग का उतावलापन है न निराशा और मोह के कारण विश्राम की कामना | उसी की एक मात्र आशा पर मैं होनहार से लड़ने की ठान रहा हूँ | होनहार भी खेल खेल रहा है , पर अब उसके पास रंग की आखिरी प्याली और काल की चरमराती तुलिका है |
इतिहास के एक दो आखिरी पृष्ट खाली रह गए है , जिन पर मेरी और होनहार की आखिरी मुलाकात होगी ; हम परस्पर प्यार से लड़ मरेंगे और लड़ कर प्यार करेंगे | हमारा आखिरी फैसला उसी दिन होगा - कौन अमर हो जाय और कौन सदा के लिए मर जाए ! बड़ा खार खाए बैठा हूँ | इतना लोमहर्षक संघर्ष करूँगा , पापों का इतना कंपकंपाने वाला प्रायश्चित करूँगा , अपनी अकर्मण्यता की ब्याज सहित इतनी कीमत चुकाऊंगा कि होनहार का निर्माता भी कहेगा - ' यह तुमने क्या डाला , हमें भी तो याद करते |'
समाप्त |:https://m.facebook.com/bhatihistory/
जय संघ शक्ति पूज्य तन सिंह जी की कलम से

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क्यों कहा जाता है भाटियों को उत्तर भट किवाड़ भाटी


क्यों कहा जाता है भाटियों को उत्तर भट किवाड़ भाटी

इसे भट्टी वंश भी कहा जाता है। इसकी उत्पति चंद्रवंशीय राजा भाटी से हुई। श्रीकृष्ण ने मथुरा को छोड़कर जब द्वारिको अपनी राजधानी बनाया तो उसके वंशजो ने काठियावाड़, कच्छ, ग्वालियर, मथुरा, धौलपुर, करौली, जैसलमेर तथा गुड़गांव तक राज्य स्थापित किया। यह क्षैत्र यदु की डांग कहलाता है। सन् 623 में इस वंश के राजा रिज की राजधानी पुष्पपुर(वर्तमान- पेशावर) में भी होनी प्रमाणित हो चुकी है। इसके पुत्र गज ने अपने नाम से गजनीपुर(वर्तमान- गजनी) बसाकर अपनी राजधानी बनाया। इसका पुत्र शालीवाहन बड़ा ही वीर पराक्रमी और महान शासक था। शालिवाहल कोट(वर्तमान सियालकोट) इसी शासन का कीर्ती स्तम्भ है।
इसी शालिवाहन का एक पुत्र तो भक्त पूर्णमल था जिसने सन्यास ले लिया था और जो बाद में नौ नाथों मे चौरंगीनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। और दूसरा पुत्र बालंद राज्य का अधिकारी बना। बालंद का पुत्र ही भाटी था। जिसके वंशज भाटी क्षत्रिय कहलाते है।
महाराजा भाटी के शासन काल में विद्वानों में मतभेद है। देवास राज्य(मध्यप्रदेश) से मिले शिलालेख के अनुसार 15 जून 1183 को वहां श्री कृष्ण की 606 वीं पीढी में हुए विजयपाल का राज्य होना प्रमाणित होता है। कई विद्वानों का अनुमान है कि इसी विजयपाल के वंशजो में गजपाल, शालिवाहन तथा भाटी हुए। इस मत के अनुसार भाटी 12 वीं या 13 वीं शताब्दी में होना चाहिए। यह मत ठीक नहीं क्योंकि विजयपाल, शालिवाहन तथा भाटी द्वितिय थे। कई अन्य शिलालेख ऐसे है जिनसे भाटी वंश के मूल पुरूष भाटी का सन् 623 में होना प्रमाणित होता है। इन्होनें सन् 623 ईस्वी में भट्टीक संवत भी चलाया था । इन्होनें भटनेर बीकानेर को बसाया था। तथा गोविंदगढ(विक्रमगढ़) जो उन दिनों में उजड़ा पड़ा था, को बसाकर भटिण्डा, पंजाब रखा। भाटी के पुत्र मंगलराव ने सियालकोट से आकर राजस्थान के उत्तर- पश्चिम भाग और बहावलपुर के क्षैत्र को जीतकर वहा अपना राज्य स्थापित किया। इसके पुत्र केहर जो तन्नो देवी का भक्त होने से तन्नु कहलाता था ने सन् 730 में तन्नौट दुर्ग बनवाया। तणु के पुत्र विजयराव ने देरावल(बहावलपुर) बसाकर तथा लोद्रवों से लोद्रवा छीनकर वहां अपनी राजधानी बनायी।
विजयराव के पुत्र देवराज बडे ही वीर तथा पराक्रमी शासक थे। इन्होनें तुर्की आक्रमणकारियों को कई बार पीछे धकेलकर उत्तर भट किवाड़ भाटी की पदवी प्राप्त की। जैसलमेर के भाटी आज भी इस उपाधि को बडे गौरव से याद करते है। जैसलमेर जैसलदेव ने सन् 1155 में जैसलमेर दुर्ग बनाकर वहीं अपनी राजधानी बनाई। तबसे आजतक यह राज्य जैसलमेर राज्य कहलाता है। इसके बाद जैसलदैव ने पंजाब के पटियाला क्षैत्र को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। और यहां अपने पुत्र को छोड़कर जैसलमेर लौट गए। जैसलदेव के वंशधर सिंधु जो पटियाल के शासक थे, विजातीय स्त्री से विवाह करने के कारण जातिच्युत हो गए  जिनके वंशज इसी क्षैत्र में सिंधु जाट है। सिंधु जाट के वंशज फूल के तीनों पुत्रों ने नाभा, पटेला तथा जींद को अपनी पृथक- पृथक राजधानी बना ली। ये तीनों रियासत आज तक भी फूलकियां रियासते कहलाती है।
जैसलमेर के भाटी नरेशः-
  1. भाटी
  2. बच्छ राव
  3. विजय राव
  4. मंगल राव
  5. केरा
  6. तनु
  7. विजयराव
  8. देवराज
  9. मूण्ड
  10. वच्छ
  11. दुसाझ
  12. विजयराव(लांजा)
  13. भोज
  14. जैसल
  15. शालिवाहन
  16. नेजल
  17. कल्याण
  18. चाचिम देव
  19. कर्ण
  20. जैत्र सिंह
  21. लखणसेन
  22. पुण्यपाल
  23. जैत्रसिंह
  24. मूलराज
  25. रतन सिंह
  26. दूदा
  27. घटसिंह
  28. केहरदेव(1361-1396)
  29. लक्ष्मण(1396-1436)
  30. वैरसी(1436-1448)
  31. चाचिगदैव(1448-1481)
  32. देवकर्ण (1481-96)
  33. जैतसिंह(1496-1528)
  34. लूणकरण (1528-50)
  35. मालदेव (1550-61)
  36. हरराज (1561-77)
  37. भीमसिंह(1577-97)
  38. कल्याणदास (1597-1627)
  39. मनोहरदास(1627-50)
  40. रामचंद्र(1650)
  41. सवलसिंह(1650-59)
  42. अमरसिंह(1659-1701)
  43. जसवंत सिंह(1701-07)
  44. बुधसिंह(1707-21)
  45. तेजसिंह(1721-22)
  46. सवाईसिंह(1722-23)
  47. अखेसिंह(1723-61)
  48. मूलराज(1761-1819)
  49. राजसिंह(1819-46)
  50. रणजीत सिंह(1846-64)
  51. वेरीसाल(1864-91)
  52. शालिवाहन तृतीय(1891-1914)
  53. जवाहर सिंह(1914-49)
  54. गिरिधर सिंह(1949-50)
  55. रघुनाथ सिंह(1950-…)
जैसलमेर के ही एक क्षत्रिय ने नाहन राज्य(हिमालय में) स्थापित किया। इस प्रकार जैसलमेर, बीकानेर, गंगानगर, भटिंडा, नाभा, जींद, पटियाला, अम्बाला, सिरमौर(नाहन) तक की यह पेटी भाटी वंश की है। अम्बाला जिले के भाटी तावनी तथा सिरमौर के सिर मौरिया कहलाते है। इस वंश के क्षत्रिय इनके अतिरिक्त अब जोधपुर, बाड़मेर तथा बिहार के भागलपुर और मुंगेर जिलों में बसते है।
भाटी वंश के प्रसिद्ध नौ गढ़ः-
  1. जैसलमेर
  2. पुंगल
  3. वीकमपुर
  4. बरसलपुर
  5. मम्मण
  6. बहट
  7. मारोठ
  8. आसणीकोट
  9. केहरोर

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